Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

धैर्य, नम्रता और मुक्ति

धैर्य, नम्रता और मुक्ति

 

वस्तुत: हम जितने धैर्यवान और नम्र बनते हैं, भीतर से उतनी ही सात्विक दृढ़ता पैदा होती है, जो महान कार्यों को करने की पात्रता प्रदान करती है।

यह धैर्य और नम्रता सामान्यत: साधना से आती है। कई जन्मों की साधना के बाद लोग महान पैदा होते हैं। इसके लिए प्रभु कृपा चाहिए।

गीता के चौदहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'अत्यंत एकाग्र मन से निष्कामभाव से मेरी भक्ति करो, मेरी सेवा करो। जो इस प्रकार मेरी सेवा करता है, वह माया के उस पार जा सकता है, नहीं तो इस गहन माया को तरा नहीं जा सकता।'

आप रज औश्र तम गुणों को प्रयत्न पूर्वक जीत सकते हैं। सत्वगुण को स्थिर करके उसकी फलासक्ति भी जीत लेंगे, परन्तु इतने से काम नहीं चलेगा। जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ है, तब तक काम चलने वाला नहीं है। अत: अंत में भगवत्कृपा चाहिए ही। सच्ची हार्दिक भक्ति के बिना धैर्य और नम्रता आती नहीं। बिना धैर्य और नम्रता के पात्रता आती नहीं। बिना प्रभु की कृपा के आप न तो महान कर्म कर सकते हैं और न महान बन सकते हैं।

सत्वगुण जब जीवन में स्थिर हो जाता है, तब कभी सिध्दि के रूप में कभी कीर्ति के रूप में फल सामने आता है। परन्तु उस फल को भी तुच्छ माने बिना मुक्ति नहीं मिलती। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए पहले अहंकार को जीतना जरूरी है। 

बिना अहंकार को जीते आसक्ति से मुक्ति नहीं मिलती। सतत प्रयास या साधना से अहंकार जीत सकते हैं। फलासक्ति को छोड़कर सत्त्वगुण से प्राप्त फल को भी ईश्वरापर्ण करने से आसक्ति पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

समकालीन विश्व व्यवस्था में धैर्य, नम्रता और मुक्ति का महत्व और बढ़ गया है। नवंबर 2009 में विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कैंपस खोलने की स्वीकृति देने के लिए बिल संसद में लाया जायेगा और 2010 से उनका भारत में आगमन होने लगेगा। इसके बाद भारत में छात्र आंदोलन की संभावना भी समाप्त हो जायेगी। दूसरी ओर आई. आई. टी एवं आई. आई . एम. भी अपना कैंपस विदेशों में खोलने लगेंगे। इस परिस्थिति में भारत में गांधी जी रास्ता और मुश्किल होता चला जायेगा।
पारंपरिक  सभ्यतामेूलक विमर्श एक प्रकार के पिछड़े और वंचित समूहों का विमर्श माना  जाने लगेगा। समकालीन दुनिया की मुख्य धारा में आधुनिकता का कोई विकल्प नहीं माना जाता है। वैश्वीकरण और उदारीकरण का भी कोई विकल्प नहीं माना जाता है। अंग्रेजी भाषा का महत्व बढ़ेगा ही। खासकर शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का महत्व बढ़ेगा ही।
लेकिन भारत के टी. वी. एवं सिनेमा तथा राजनीति में हिन्दी का महत्व  घटने वाला नहीं है। दुभाषियों का महत्व भी बढ़ेगा। लेकिन इन क्षेत्रों में पूंजी का महत्व भाषा से बहुत ज्यादा होगा। इन्टरनेट का महत्व और बढ़ेगा। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का इन्टरनेट भारत में महत्व  पायेगा। समाज विज्ञान, मानविकी और साहित्यालोचना के पाठक तेजी से   घट रहे हैं। दर्शन के पाठक तो और भी घट रहे हैं। भौतिकवाद बढ़ा है। साम्यवाद घटा है। उपभोक्तावाद बढ़ा है। देहवाद बढ़ा है। आदर्शवाद घटा है। युक्तिवाद (प्रैग्मैटिज्म) बढ़ा है।
हम भारतीय लोग इतिहास के एक नये मोड़ पर खड़े हैं। उसी मोड़ पर जिस पर साठ वर्ष पहले अमेरिका खड़ा था। ईरान आज वहां खड़ा है जिस जगह पर द्वितीय विश्वयुध्द से पहले जर्मनी खड़ा था। पाकिस्तान वहां खड़ा है जिस जगह पर ईटली खड़ा था। चीन वहीं खड़ा है जिस जगह पर जापान खड़ा था। अमेरिकी आज वहीं खड़ा है जहां एक वक्त ईग्लैंड खड़ा था। यूरोपीय यूनियन वहीं खड़ा है। जहां पर फ्रांस खड़ा था। तीसरा विश्वयुध्द सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुध्द के रूप में लड़ा गया था। अब चौथे विश्वयुध्द की ऐतिहासिक भूमिका बन रही है। यह भूमिका 11 सितंबर 2001 से बन रही है। नहीं चाहते हुए भी भारत को इसमें लपेटा जा रहा है। नियम से ईरान और पाकिस्तान में गांधी जी के मार्ग पर विमर्श चलना चाहिये था लेकिन दुर्भाग्य से भारत में जिन्ना के इतिहास पर विमर्श चल रहा है। भारत में गांधी विमर्श कमजोर हुआ है। वैश्वीकरण के दौर में सत्य और अहिंसा की सतही व्याख्या बढ़ी है लेकिन स्वदेशी एवं स्वराज के विमर्श में लोगों की रूचि घटी है। सर्वोदय और अंत्योदय में लोगों की रूचि घटी है।

हमारे यहां दुर्भाग्य से कोई संस्थान नहीं है, जहां वास्तव में विद्यार्थियों को राजनीतिक कॅरियर के लिए तैयार किया जाता है। राजनीतिक पार्टियों के पास भी ऐसा कोई प्रवेश पाठयक्रम नहीं होता, जिसके तहत योग्य प्रतिभाशाली युवा भारतीयों को चुना जा सके। उनके लिए कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम और योग्यता या प्रतिभा के आधार पर उनका मूल्यांकन करने का कोई तरीका नहीं होता, ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि बेहतर प्रतिभाओं को अपनी चमक बिखेरने का मौका मिले। इसके अभाव में पार्टी को चलाने और कुछ कर दिखाने के लिए राजनीतिक पार्टियां कुछ गिने - चुने करिश्माई व्यक्तियों पर निर्भर होती हैं और उनकी अचानक अनुपस्थिति से निर्वात पैदा हो जाता है। उस निर्वात को भरने के लिए उनके क्लोन की जरूरत होती है न कि ऐसे बेहतरीन नेता की, जो राज्य का संचालन कर सके। ऐसी स्थिति में धैर्य और नम्रता का महत्व बहुत बढ़ जाता है। इस विपरीत परिस्थिति में भी सनातनी लोग मुक्ति की कामना और प्रयास करते रहते हैं। प्रभु की कृपा होंने पर आदमी महान कार्य का माध्यम भी बनता है, और मुक्ति भी पाता है।

 

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