Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

नीति, धर्म एवं राजनीति

नीति, धर्म एवं राजनीति

 

यदि नीति और धर्म के दायरे के बाहर राजनीति की चर्चा करनी हो तो सज्जनो को मौन धारण कर लेनी चाहिये । यह या तो भाग्य का मामला होता है या अनीति और अधर्म का | इस पर चर्चा करना फिजूल है। भाग्य और देशकाल के दायरे में संयम रखने से मौका मिलता है । राजनीति में सफल बने रहने के लिए संयम एवं धैर्य अति आवश्यक है । इस्लाम में पैगम्बर मुहम्मद और शुरुआती चार खलिफ़ाओं के बाद राजनीतिक नेतृत्व का आधार सैन्य सफलता एवं तिकड़म रहा है । यूरोप में भी राजनीतिक नेतृत्व का आधार सैन्य सफलता , तिकड़म एवं कूटनीति रही है । प्रभु वर्ग का समर्थन और सहयोग पाने के लिये अनीति एवं अधर्म का सहारा लेना स्वाभाविक माना जाता रहा है । महात्मा गांधी के अनुसार ऐसे नेतृत्व को  वैध नहीं माना जा सकता और जिस सभ्यता में ऐसे नेतृत्व को वैधता प्राप्त होती है वह सच्ची सभ्यता नहीं है । सच्ची सभ्यता में राजनीतिक नेतृत्व का आधार धर्म और नीति होती है । राजनीतिक नेतृत्व का दायित्व सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा एवं जन कल्याण करना होता है । दुर्भाग्य से हिन्दू सभ्यता में भी अब राजनीतिक नेतृत्व का आधार धर्म और नीति नहीं रहा । धार्मिक मानकों पर खरा उतरना अब आवश्यक नहीं माना जाता। नीति और नैतिकता की बात राजनीति में सामान्यत: नहीं किया जाता | आधुनिक बनने के चक्कर में राजनीति लूट-खसोट का जरिया हो गया है। अब लोग राजनीति में पैसा बनाने और ऐयाशी करने के लिए आते हैं । भारतीय परम्परा में क्षात्र धर्म की सुविकसित अवधारणा रही है । अन्य पारम्परिक सभ्यताओं में भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए उच्च आदर्शों का पालन करना जरुरी माना जाता रहा है । हर परम्परा में समाज का राजनीतिक नेतृत्व नैतिक प्रतिमानों पर नियंत्रित किया जाता रहा है । निरंकुश नेतृत्व पर नैतिक अंकुश स्थापित नहीं हो पाता तो सामाज एवं साम्राज्य में विद्रोह, आंदोलन एवं संगठित असंतोष शुरू हो जाता है। केवल वही साम्राज्य इतिहास में लम्बे समय तक शासन कर पाता है जो धर्म और नीति के आधार पर सत्ता का सदुपयोग कर पाती है। आधुनिक युग में साध्य और साधन में कोइ नैतिक संबंध होना जरूरी नहीं माना जाता।  इसको फार्मल  रेशनलिटी (औपचारिक विवेक) कहा जाता है ।

आधुनिक सभ्यता औपचारिक विवेक और तर्क पर आधारित होता है । आधुनिक राजनीति में प्रजातांत्रिक पूंजीवाद सबसे लोकप्रिय स्वरूप है । इसमें हर व्यस्क नागरिक को मतदान का अधिकार होता है । एक निश्चित समय पर शासकों चुनाव होता है । नागरिक बहुमत के आधार पर अपने शासक को चुनती है | हर चुनाव युद्ध की तरह लड़ा जाता है । सेना की जगह अब राजनीतिक दलों ने ले ली है । हर दल का नेता कबीलों के सरदार या सेनापति की तरह व्यहवार करता है। एक बार सत्ता में आ जने के बाद नेता लूट-खसोट, ऐयाशी एवं विलासिता में डूब जाते हैं। सामाजिक व्यवसथा कायम करना, सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना, जन कल्याण करना भूल जाते हैं। पूंजीवादी प्रजातंत्र में राजनीति सत्ता, संपत्ति एवं सम्मान पाने का एक जरिया या माध्यम बन गया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलाल राजनीतिक दलों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने लगे हैं ।5 साल में सांसद एवं विधायक करोड़पति से अरबपति बनने के लिए उद्यम में लग जाते हैं। हराम का पैसा आता है तो विलासिता एवं ऐयाशी करना स्वाभाविक माना जाता है। सामाजिक सेवा, जन कल्याण एवं सामाजिक विकास के नाम पर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बनाये जाते हैं जिसमें करोड़ों रुपयों का बंदरबांट होता है। सामाजिक न्याय के नाम पर नए प्रभु वर्ग और वोट बैंक बनाए जाते हैं। मीडिया का जम कर दुरुपयोग होता है। पूंजीवादी प्रजातंत्र में इसका कोई उपाय नहीं है। पूंजीवाद लोभ पर आधारित आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी, दुष्ट एवं शैतानी प्रवृत्ति का जीव होता है। थॉमस हॉब्स से लेकर चार्ल्स डार्विन तक पश्चिम में इस विचार को मानने वाले विचारकों की एक लंबी श्रृंखला है। ये लोग मानते हैं कि इस संसार में केवल सर्वश्रेष्ठ (फिटेस्ट) को जीवित रहने का अधिकार है। इस संसार में जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में केवल सर्वश्रेष्ठ सफल हो सकता है। व्यवहारिक रूप से किसी भी तरह सफलता प्राप्त करना पूंजीवादी प्रजातंत्र में सबसे महत्वपूर्ण मानक बन जाता है। इसके विपरीत पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी जैसे मनीषियों की विचारधारा है। इनके अनुसार यह संसार ज्यादा नैतिक, ज्यादा न्यायसंगत, ज्यादा कल्याणकारी एवं ज्यादा अहिंसक बनायी जा सकती है। मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी, दुष्ट एवं शैतानी प्रवृत्ति का नहीं होता। वह परिस्थिति वश ऐसा बन सकता है लेकिन अनुकूल परिस्थिति में वह आत्म संतुष्ट, दयालु और दैवीय प्रवृत्ति का भी बन सकता है। सब कुछ सामाजिक व्यव्स्था, शिक्षा एवं संस्कार पर निर्भर करता है। कुछ शब्दों में, सब कुछ धर्म एवं नीति या सत्य और अहिंसा पर निर्भर करता है। पैगम्बर मुहम्मद ने इसे मदीना के उम्मा (इस्लाम में आदर्श समुदाय) में चरितार्थ करने की कोशिश की थी। कार्ल मार्क्स ने इसे दास कैपिटल में चित्रित करने की कोशिश की थी। महात्मा गांधी ने इसे हिन्द स्वराज और सर्वोदय में अंकित करने की कोशिश की थी। पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी ने राजनीति को धर्म एवं नीति के दायरे में नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इनके बीच नये संश्लेषण की आवश्यकता है। यह संभव भी है और जरूरी भी है। मानवता का कल्याण इसी में है। इसी से ज्यादा मंगलकारी सभ्यता बन सकती है।

 

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