मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पाँचवा भाग

आश्रम की झाँकी

 

मजदूरो की बात को आगे बढाने से पहले यहाँ आश्रम की झाँकी कर लेना आवश्यक है । चम्पारन मे रहते हुए भी मैं आश्रम को भूल नही सकता था । कभी कभी वहाँ हो भी आता था ।

कोचरब अहमदाबाद के पास एक छोटा सा गाँव है । आश्रम का स्थान इस गाँव मे था । कोचरब मे प्लेग शुरू हुआ । आश्रम के बालको को मै उइस बस्ती के बीच सुरक्षित नही रख सकता था । स्वच्छता के नियमो का अधिक से अधिक सावधानी से पालन करने पर भी आसपास की अस्वच्छता से आश्रम को अछूता रखना असमभव था । कोचरब के लोगो से स्वच्छता के नियमों का पालन कराने की अथवा ऐसे समय उनकी सेवा करने की हममे शक्ति नही थी , हमारा आदर्श तो यह था कि आश्रम को शहर या गाँव से अलग रखे , फिर भी वह इतना दूर न हो कि वहाँ पहुँचने मे बहुत कठिनाई हो । किसी न किसी दिन तो आश्रम को आश्रम के रूप मे सुशोभित होने से पहले अरनी जमीन पर खुली जगह मे स्थिर होना ही था ।

प्लेग को मैने कोचरब छोड़ने की नोटिस माना । श्री पूंजाभाई हीराचन्द आश्रम के साथ बहुत निकट का सम्बन्ध रखते थे और आश्रम की छोटी बड़ी सेवा शुद्ध और निरभिमान भाव से करते थे । उन्हें अहमदाबाद के कारबारी जीवन का व्यापक अनुभव था । उन्होंने आश्रम के लिए जमीन खोज तुरन्त ही कर लेने का बीड़ा उठाया । कोचरब के उत्तर दक्षिण के भाग मे मैं उनके साथ घूमा । फिर उत्तर की ओर तीन चार मील दूर कोई टुक़डा मिल जाय तो उसका पता लगाने की बात मैने उनसे कही । उन्होंने आज की आश्रमवाली जमीन का पता लगा लिया । वह जेल के पास है , यह मेरे लिए खास प्रलोभन था । सत्याग्रह आश्रम मे रहने वाले के भाग्य मे जेल तो लिखा ही होता है । अपनी इस मान्यता के कारण जेल का पड़ोस मुझे पसन्द आया । मै यह तो जानता ही था कि जेल के लिए हमेशा वही जगह पसन्द की जाती है जहाँ आसपास स्वच्छ स्थान हो ।

कोई आठ दिन के अन्दर ही जमीन का सौदा तय कर लिया । जमीन पर न तो कोई मकान था, न कोई पेड़ । जमीन के हक मे नदी का किनारा और एकान्त ये दो बड़ी सिफारिशे थी । हमने तम्बुओ मे रहने का निश्चय किया और सोचा कि रसोईघर के लिए टीन का एक कामचलाऊ छप्पर बाँध लेंगे और धीरे धीरे स्थायी मकान बनाना शुरू कर देंगे ।

इस समय आश्रम की बस्ती बढ गयी थी । लगभग चालीस छोटे-बढे स्त्री-पुरुष थे । सुविधा यह थी कि सब एक ही रसोईघर मे खाते थे । योजना का कल्पना मेरी थी । उसे अमली रूप देने का बोझ उठाने वाले तो नियमानुसार स्व. मगललाल गाँधी ही थे ।

स्थायी मकान बनने से पहले की कठिनाइयों का पार न था । बारिश का मौसम सामने था । सामान सब चार मील दूर शहर से लाना होता था । इस निर्जन भूमि मे साँप आदि हिंसक जीव तो थे ही । ऐसी स्थिति मे बालको की सार सँभाल को खतरा मामूली नही था । रिवाज यह था कि सर्पादि को मारा न जाय लेकिन उनके भय से मुक्त तो हममे से कोई न था , आज भी नही है ।

फीनिक्स, टॉल्सटॉय फार्म और साबरमती आश्रम तीनो जगहों मे हिंसक जीवो को न मारने का यथाशक्ति पालन किया गया है । तीनो जगहों मे निर्जन जमीने बसानी पड़ी थी । कहना होगा कि तीनो स्थानो में सर्पादि का उपद्रव काफी था । तिस पर भी आज तक एक भी जान खोनी नही पड़ी । इसमे मेरे समान श्रद्धालु को तो ईश्वर के हाथ का , उसकी कृपा का ही दर्शन होता है । कोई यह निरर्थक शंका न उठावे कि ईश्वर कभी पक्षपात नही करता , मनुष्य के दैनिक कामो मे दखल देने के लिए यह बेकार नहीं बैठा है । मै इस चीज को, इस अनुभव को , दूसरी भाषा मे रखना नही जानता । ईश्वर की कृति को लौकिक भाषा मे प्रकट करते हुए भी मैं जानता हूँ कि उसका 'कार्य' अवर्णनीय है । किन्तु यदि पामर मनुष्य वर्णन करने बैठे तो उसकी अपनी तोतली बोली ही हो सकती है । साधारणतः सर्पादि को न मारने पर भी आश्रम समाज के पच्चीस वर्ष तक बचे रहने का संयोग मानने के बदले ईश्वर की कृपा मानना यदि वहम हो , तो वह वहम भी बनाये रखने जैसा है ।

जब मजदूरो की हड़ताल हुई , तब आश्रम की नींव पड़ रही थी । आश्रम का प्रधान प्रवृत्ति बुनाई काम की थी । कातने की तो अभी हम खोज ही नही कर पाये थे । अतएव पहले बुनाईघर बनाने का निश्चय किया था । इससे उसकी नींव चुनी जा रही थी ।

 

 

 

 

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