मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग पाँचवा भाग रौलट-एक्ट और मेरा धर्म-संकट
मित्रो ने सलाह दी कि माथेरान जाने से मेरा शरीर शीध्र ही पुष्ट होगा । अतएव मै माथेरान गया । किन्तु वहाँ का पानी भारी था , इसलिए मेरे सरीखे रोगी के लिए वहाँ रहना कठिन हो गया । पेचिश के कारण गुदाद्वार इतना नाजुक हो गया था कि साधारण स्पर्श भी मुझ से सहा न जाता था और उसमे दरारे पड़ गयी थी , जिससे मलत्याग के समय बहुत कष्ट होता था । इससे कुछ भी खाते हुए डर लगता था । एक हफ्ते मे माथेरान से वापस लौटा । मेरी तबीयत की हिफाजत का जिम्मा शंकरलाला बैंकर ने अपने हाथ मे लिया था । उन्होने डॉ. दलाल से सलाह लेने का आग्रह किया । डॉ. दलाल आये । उनकी तत्काल निर्णय करने की शक्ति ने मुझे मुग्ध कर लिया । वे बोले, 'जब तक आप दूध न लेगें, मै आपके शरीर को फिर से हृष्ट-पुष्ट न बना सकूँगा । उसे पुष्ट बनाने के लिए आपको दूध लेना चाहिये और लोहे तथा आर्सेनिक की पिचकारी लेनी चाहिये । यदि आप इतना करे , तो आपके शरीर को पुनः पुष्ट करने की गारंटी मै देता हूँ ।' मैने जवाब दिया , 'पिचकारी लगाइये, लेकिन दूध मै न लूँगा ।' डॉक्टर ने पूछा, 'दूध के सम्बन्ध मे आपकी प्रतिक्षा क्या है ?' 'यह जानकर कि गाय-भैस पर फूंके की क्रिया की जाती है , मुझे दूध से नफरत हो गयी है । और, यह सदा से मानता रहा हूँ कि दूध मनुष्य का आहार नही है । इसलिए मैने दूध छोड़ दिया है ।' यह सुनकर कस्तूरबाई , जो खटिया के पास ही खडी थी, बोल उठी , 'तब तो आप बकरी का दूध ले सकते है ।' डॉक्टर बीच मे बोले, 'आप बकरी का दूध ले , तो मेरा काम बन जाये।' मै गिरा । सत्याग्रह की लड़ाई के मोह ने मेरे अन्दर जीने का लोभ पैदा कर दिया और मैने प्रतिज्ञा के अक्षरार्थ के पालन के संतोष मानकर उसकी आत्मा का हनन किया । यद्यपि दूध की प्रतिज्ञा लेते समय मेरे सामने गाय-भैंस ही थी , फिर भी मेरी प्रतिज्ञा दूधमात्र की मानी जानी चाहिये । और, जब तक मै पशु के दूधमात्र को मनुष्य के आहार के रूप मे निषिद्ध मानता हूँ , तब तक मुझे उसे लेने का अधिकार नही , इस बात के जानते हुए भी मै बकरी का दूध लेने को तैयार हो गया । सत्य के पुजारी ने सत्याग्रह की लड़ाई के लिए जीने की इच्छा रखकर अपने सत्य को लांछित किया । मेरे इस कार्य का डंक अभी तक मिटा नही है और बकरी का दूध छोड़ने के विषय मे मेरा चिन्तन तो चल ही रहा है । बकरी का दूध पीते समय मै रोज दुःख का अनुभव करता हूँ । किन्तु सेवा करने का महासूक्ष्म मोह, जो मेरे पीछे पड़ा है, मुझे छोड़ता नही। अहिंसा की दृष्टि से आहार के अपने प्रयोग मुझे प्रिय है । उनसे मुझे आनन्द प्राप्त होता है । वह मेरा विनोद है । परन्तु बकरी का दूध मुझे आज इस दृष्टि से नही अखरता । वह अखरता है सत्य की दृष्टि से । मुझे ऐसा भास होता है कि मै अहिंसा को जितना पहचान सका हूँ , सत्य को उससे अधिक पहचानता हूँ । मेरा अनुभव यह है कि अगर मै सत्य को छोड़ दूँ , तो अहिंसा की भारी गुत्थियाँ मै कभी सुलभा नही सकूँगा । सत्य के पालन का अर्थ है , लिये हुए व्रत के शरीर और आत्मा की रक्षा, शब्दार्थ और भावार्थ का पालन । मुझे हर दिन यह बात खटकती रहती है कि मैने दूध के बारे मे व्रत की आत्मा को - भावार्थ का -- हनन किया है । यह जानते हुए भी मै यह नही जान सका कि अपने व्रत के प्रति मेरा धर्म क्या है , अथवा कहिये कि मुझे उसे पालने की हिम्मत नही है । दोनो बाते एक ही है , क्योकि शंका के मूल मे श्रद्धा का अभाव रहता है । हे ईश्वर, तू मुझे श्रद्धा दे !
बकरी का दूध शुरू करने के कुछ दिन बाद डॉ. दलाल ने गुदाद्वार की दरारो का ओपरेशन किया और वह बहुत सफल हुआ । बिछौना छोड़कर उठने की कुछ आशा बंध रही थी और अखबार वगैरा पढने लगा ही था कि इतने मे रौलट कमेटी की रिपोर्ट मेरे हाथ मे आयी। उसकी सिफारिशे पढकर मै चौका । भाई उमर सोबानी और शंकरलाल बैकर ने चाहा कि कोई निश्चित कदम उठाना चाहिये । एकाध महीने मै अहमदाबाद गया । वल्लभभाई प्रायः प्रतिदिन मुझे देखने आते थे । मैने उनसे बात की और सुझाया कि इस विषय मे हमे कुछ करना चाहिये । 'क्या किया जा सकता है ?' इसके उत्तर मे मैने कहा, 'यदि थोड़े लोग भी इस सम्बन्ध मे प्रतिज्ञा करने मिल जाये तो, और कमेटी की सिफारिश के अनुसार कानून बने तो , हमें सत्याग्रह शुरू करना चाहिये । यदि मै बिछौने पर पड़ा न होता तो अकेला भी इसमे जूझता और यह आशा रखता कि दूसरे लोग बाद मे आ मिलेंगे । किन्तु अपनी लाचार स्थिति मे अकेले जूझने की मुझमे बिल्कुल शक्ति नही है ।' इस बातचीत के परिणाम-स्वरूप ऐसे कुछ लोगो की एक छोटी सभा बुलाने का निश्चय हुआ , जो मेरे सम्पर्क मे ठीक-ठीक आ चुके थे । मुझे तो यह स्पष्ट प्रतीत हुआ कि प्राप्त प्रमाणो के आधार पर रौलट कमेटी ने जो कानून बनानेकी सिफारिश की है उसकी कोई आवश्यकता नही है । मुझे यह भी इतना ही स्पष्ट प्रतीत हुआ कि स्वाभिमान की रक्षा करने वाली कोई भी जनता ऐसे कानून को स्वीकार नही कर सकती । वह सभा हुए । उसमे मुश्किल से कोई बीस लोगो को न्योता गया था । जहाँ तक मुझे याद है , वल्लभभाई के अतिरिक्त उसमे सरोजिनी नायडू, मि. हार्निमैन, स्व. उमर सोबानी, श्री शंकरलाल बैंकर, श्री अनसूयाबहन आदि सम्मिलित हुए थे । प्रतिज्ञा-पत्र तैयार हुआ और मुझे याद है कि जितने लोग हाजिर थे उन सबने उस पर हस्ताक्षर किये । उस समय मै कोई अखबार नही निकालता था । पर समय-समय पर अखबारो मे लिखा करता था , उसी तरह लिखना शुरू किया और शंकरलाल बैकर ने जोर का आन्दोलन चलाया । इस अवसर पर उनकी काम करने की शक्ति और संगठन करने की शक्ति का मुझे खूब अनुभव हुआ । कोई भी चलती हुई संस्था सत्याग्रह जैसे नये शस्त्र को स्वयं उठा ले , इसे मैने असम्भव माना । इस कारण सत्याग्रह सभा की स्थापना हुई । उसके मुख्य सदस्यो के नाम बम्बई मे लिखे गये । केन्द्र बम्बई मे रखा गया । प्रतिज्ञा-पत्रो पर खूब हस्ताक्षर होने लगे । खेडा की लड़ाई की तरह पत्रिकाये निकाली और जगह -जगह सभाये हुई । मै इस सभा का सभापति बना था । मैने देखा कि शिक्षित समाज के और मेरे बीच बहुत मेल नही बैठ सकता । सभा मेरे गुजराती भाषा के उपयोग के मेरे आग्रह ने और मेरे कुछ दूसरे तरीको ने उन्हें परेशानी मे डाल दिया । फिर भी बहुतो ने मेरी पद्धति को निबाहने की उदारता दिखायी , यह मुझे स्वीकार करना चाहिये । लेकिन मैने शुरू मे ही देख लिया कि यह सभा लम्बे समय तक टिक नही सकेगी । इसके अलावा, सत्य और अहिंसा पर जो जोर मै देता था, वह कुछ लोगो को अप्रिय मालूम हुआ । फिर भी शुरू के दिनो मे यह नया काम घड़ल्ले के साथ आगे बढा।
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