मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग पाँचवा भाग आश्रम की स्थापना
कुम्भ की यात्रा मेरी हरिद्वार की दूसरी यात्रा थी । सन् 1915 के मई महीने की 25 तारीख के दिन सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई । श्रद्धानन्दजी की इच्छा थी कि मै हरिद्वार मे बसूँ । कलकत्ते के कुछ मित्रो की सलाह वैद्यनाथधाम मे बसाने की थी । कुछ मित्रो को प्रबल आग्रह राजकोट मे बसने का था । किन्तु जब मै अहमदाबाद से गुजरा , तो बहुत से मित्रो ने अहमदाबाद पसन्द करने को कहा और आश्रम का खर्च खुद ही उठाने का जिम्मा लिया । उन्होने मकान खोज देना भी कबूल किया । अहमदाबाद पर मेरी नजर टिकी थी । गुजराती होने के कारण मै मानता था कि गुजराती भाषा द्वारा मै देश की अधिक से अधिक सेवा कर सकूँगा । यह भी धारणा थी कि चूंकि अहमदाबाद पहले हाथ की बुनाई का केन्द्र था, इसलिए चरखे का काम यही अधिक अच्छी तरह से हो सकेगा । साथ ही, यह आशा भी थी कि गुजरात का मुख्य नगर होने के कारण यहाँ के धनी लोग धन की अधिक मदद कर सकेंगे । अहमदाबाद के मित्रो के साथ मैने जो चर्चाये की, उनमे अस्पृश्यो का प्रश्न भी चर्चा का विषय बना था । मैने स्पष्ट शब्दो मे कहा था कि यदि कोई योग्य अंत्यज भाई आश्रम मे भरती होना चाहेगा तो मै उसे अवश्य भरती करूँगा । 'आपकी शर्तो का पालन कर सकने वाले अंत्यज कौन रास्ते मे पड़े है ?' यो कहकर एक वैष्णव मित्र ने अपने मन का समाधान कर लिया और आखिर मे अहमदाबाद मे बसने का निश्चय हुआ । मकानो की तलाश करते हुए कोचरब मे श्री जीवणलाल बारिस्टर का मकान किराये पर लेने का निशचय हुआ । श्री जीवणलाल मुझे अहमदाबाद मे बसाने वालो मे अग्रगण्य थे । तुरन्त ही प्रश्न उठा कि आश्रम का नाम क्या रखा जाय ? मैने मित्रो से सलाह की। कई नाम सामने आये । सेवाश्रम, तपोवन आदि नाम सुझाये गये थे । सेवाश्रम नाम मुझे पसन्द था, पर उससे सेवा की रीति का बोध नही होता था । तपोवन नाम पसंद किया ही नही जा सकता था, क्योकि यद्यपि मुझे तपश्चर्या प्रिय थी, फिर भी यह नाम बहुत भारी प्रतीत हुआ । हमें तो सत्य की पूजा करनी थी , सत्य की शोध करनी थी, उसी का आग्रह रखना था , और दक्षिण अफ्रीका मे मैने जिस पद्धति का उपयोग किया था , उसका परिचय भारतवर्ष को कराना था तथा यह देखना था कि उसकी शक्ति कहाँ तक व्यापक हो सकती है । इसलिए मैने और साथियो ने सत्याग्रह-आश्रम नाम पसन्द किया । इस नाम से सेवा का और सेवा की पद्धति का भाव सहज ही प्रकट होता था ।
आश्रम चलाने के लिए नियमावली की आवश्यकता थी । अतएव मैने नियमावली का मसविदा तैयार करके उस पर मित्रो की राय माँगी । बहुतसी सम्मतियो मे से सर गुरुदास बैनर्जी की सम्मति मुझे याद रह गयी है । उन्हें नियमवली तो पसन्द आयी, पर उन्होने सुझाया कि व्रतो मे नम्रता के व्रत को स्थान देना चाहिये। उनके पत्र की ध्वनि यह थी कि हमारे युवक वर्ग मे नम्रता की कमी है । यद्यपि नम्रता के अभाव का अनुभव मै जगह-जगह करता था , फिर भी नम्रता को व्रतो मे स्थान देने से नम्रता के नम्रता न रह जाने का भय लगता था । नम्रता का संपूर्ण अर्थ तो शून्यता है । शून्यता की प्राप्ति के लिए दूसरे व्रत हो सकते है । शून्यता मोक्ष की स्थिति है । मुमुक्ष अथा सेवक के प्रत्येक कार्य मे नम्रता -- अथवा निरमिभानता -- न हो तो वह मुमुक्ष नही है, सेवक नही है । वह स्वार्थी है , अहंकारी है । आश्रम मे इस समय लगभग तेरह तामिल भाई थे । दक्षिण अफ्रीका से मेरे साथ पाँच तामिल बालक आये थे और लगभग पचीस स्त्री -पुरुषो से आश्रम का आरंभ हुआ था । सब एक रसोई मे भोजन करते थे और इस तरह रहने की कोशिश करते थे कि मानो एक ही कुटुम्ब के हो ।
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