मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग चौथा भाग घर में सत्याग्रह
मुझे जेल का पहला अनुभव सन् 1908 मे हुआ । उस समय मैने देखा कि जेल मे कैदियो से जो कुछ नियम पलवाये जाते है, संयमी अथवा ब्रह्मचारी को उनका पालन स्वेच्छापूर्वक करना चाहिये । जैसे, कैदियो को सूर्यास्त से पहले पाँच बजे तक खा लेता होता है । उन्हें -- हिन्दुस्तानी और हब्शी कैदियो को -- चाय या कॉफी नही दी जाती । नमक खाना हो तो अलग से लेगा होता है । स्वाद के लिए तो कुछ खाया ही नही जा सकता । ( जेल के मेरे अनुभव भी पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके है । मूलतः वे गुजराती मे लिखे गये थे और वे ही अंग्रेजी मे प्रकाशित हुए है । जहाँ तक मै जानता हूँ , दोनो पुस्तके मिल सकती है । -- मोहनदास कर्मचन्द गाँधी ) जब मैने जेल के डॉक्टर से हिन्दुस्तानियो के लिए 'करी पाउडर' माँगा और नमक बनती हुई रसोई मे ही डालने की बात कही , तो वे बोले , 'यहाँ आप लोग स्वाद का आनन्द लूटने के लिए नही आये है । आरोग्य की दृष्टि से करी पाउडर की कोई आवश्यकता नही है । आरोग्य के विचार से नमक ऊपर से ले या पकाते समय रसोई मे डाले, दोनो एक ही बात है ।' वहाँ तो बड़ी मेहनत के बाद हम आखिर जरूरी परिवर्तन करा सके थे । पर केवल संयम की दृष्टि से देखे तो दोनो प्रतिबंध अच्छे ही थे । ऐसा प्रतिबन्ध जब जबरदस्ती लगाया जाता है तो वह सफल नही होता । पर स्वेच्छा से पालन करने पर ऐसा प्रतिबन्ध बहुत उपयोगी सिद्ध होता है । अतएव जेल से छूटने के बाद मैने ये परिवर्तन भोजन मे तुरन्त किये । भरसक चाय पीना बन्द किया और शाम को जल्दी खाने की आदत डाली, जो आज स्वाभाविक हो गयी है । किन्तु एक ऐसी घटना घटी , जिसके कारण मैने नमक का त्याग किया , जो लगभग दस वर्ष तक अखंड रूप से कायम रहा । अन्नाहार सम्बन्धी कुछ पुस्तक मे मैने पढा था कि मनुष्य के लिए नमक खाना आवश्यक नही है और न खानेवाले को आरोग्य की दृष्टि से लाभ ही होता है । यह तो मुझे सूझा ही थी कि नमक न खाने से ब्रह्मचारी को लाभ होता है । मैने यह भी पढा और अनुभव किया था कि कमजोर शरीरवाले को दान न खानी चाहिये । किन्तु मै उन्हें तुरन्त छोड़ न सका था । दोनो चीजे मुझे प्रिय थी । यद्यपि उक्त शल्यक्रिया के बाद कस्तूरबाई का रक्तस्राव थोड़े समय के लिए बन्द हो गया था , पर अब वह फिर से शुरू हो गया और किसी प्रकार बन्द ही न होता था । अकेले पानी के उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए । यद्यपि पत्नी को मेरे उपचारो पर विशेष श्रद्धा नही थी , तथापि उनके लिए तिरस्कार भी नही था । दूसरी दवा करने का आग्रह न था । मैने उसे नमक और दाल छोड़ने के लिए मनाना शुरू किया । बहुत मनाने पर भी, अपने कथन के समर्थन के कुछ-न-कुछ पढ़कर सुनाने पर भी, वह मानी नही । आखिर उसने कहा, 'दाल और नमक छोड़ने को तो कोई आपसे कहे, तो आप भी न छोड़ेगे ।' मुझे दुःख हुआ और हर्ष भी हुआ । मुझे अपना प्रेम उंड़लने का अवसर मिला । उसके हर्ष मे मैने तुरन्त ही कहा , 'तुम्हारा यह ख्याल गलत है । मुझे बीमारी हो और वैद्य इस चीज को या दूसरी किसी चीज को छोड़ने के लिए कहे , तो मै अवश्य छोड़ दूँ । लेकिन जाओ, मैने एक साल के लिए दाल और नमक दोनो छोड़े । तुम छोड़ो या न छोड़ो , यह अलग बात है ।' पत्नी को बहुत पश्चाताप हुआ । वह कह उठी , 'मुझे माफ कीजिये । आपका स्वभाव जानते हुए भी मै कहते कह गयी । अब मै दाल औऱ नमक नही खाऊँगी , लेकिन आप अपनी बात लौटा ले । यह तो मेरे लिए बहुत बड़ी सजा है जायेगी ।' मैने कहा, 'अगर तुम दाल और नमक छोड़ोगी , तो अच्छा ही होगा । मुझे विश्वास है कि उससे तुम्हे लाभ होगा । पर मै ली हुई प्रतिज्ञा वापस नही ले सकूँगा । मुझे तो इससे लाभ ही होगा । मनुष्य किसी भी निमित्त से संयम क्या न पाले , उससे उसे लाभ ही है । अतएव तुम मुझ से आग्रह न करो । फिर मेरे लिए भी यह एक परीक्षा हो जायेगी और इन दो पदार्थो को छोड़ने का जो निश्चय तुमने किया है, उस पर ढृढ रहने मे तुम्हें मदद मिलेगी। ' इसके बाद मुझे उसे मनाने के जरुरत तो रही ही नही । 'आप बहुत हठीले है । किसी की बात मानते ही नही । ' कहकर और अंजलि-भर आँसू बहाकर वह शान्त हो गयी । मै इसे सत्याग्रह का नाम देना चाहता हूँ और इसको अपने जीवन की मधुर स्मृतियो मे से एक मानता हूँ । इसके बाद कस्तूरबाई की तबीयत खूब संभली । इसमे नमक और दाल का त्याग कारणरूप था या वह किस हद कारणरूप था , अथवा उस त्याग से उत्पन्न आहार-सम्बन्धी अन्य छोटे-बडे परिवर्तन कारणभूत थे, या इसके बाद दूसरे नियमो का पालन कराने मे मेरी पहरेदारी निमित्तरूप थी , अथवा उपर्युक्त प्रंसग से उत्पन्न मानसिक उल्लास निमित्तरूप था -- सो मै कह नही सकता । पर कस्तूरबाई का क्षीण शरीर फिर पनपने लगा , रक्तस्राव बन्द हुआ और 'बैद्यराज' के रूप मे मेरी साख कुछ बढ़ी । स्वयं मुझ पर तो इन दोनो के त्याग का प्रभाव अच्छा ही पड़ा । त्याग के बाद नमक अथवा दाल की इच्छा तक न रही । एक साल का समय तो तेजी से बीत गया । मै इन्द्रियो की शान्ति अधिक अनुभव करने लगा और मन संयम को बढ़ाने की तरफ अधिक दौड़ने लगा । कहना होगा कि वर्ष की समाप्ति के बाद भी दाल और नमक का मेरा त्याग ठेठ देश लौटने तक चालू रहा । केवल एक बार सन् 1914 मे विलायत मे नमक और दाल खायी थी । पर इसकी बात और देश वापस आने पर ये दोनो चीजे फिर किस तरह लेनी शुरू की इसकी कहानी आगे कहूँगा । नमक और दाल छुड़ाने के प्रयोग मैने दूसरे साथियो पर भी काफी किये है और दक्षिण अफ्रीका मे तो उसके परिणाम अच्छे ही आये है । वैद्यक दृष्टि से दोनो चीजो के त्याग के विषय मे दो मत हो सकते है, पर इसमे मुझे कोई शंका ही नही कि संयम की दृष्टि से तो इन दोनो चीजो के त्याग मे लाभ ही है । भोगी और संयमी के आहार भिन्न होने चाहिये । ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखनेवाले लोग भोगी का जीवन बिताकर ब्रह्मचर्य को कठिन और कभी-कभी लगभग असंभव बना डालते है ।
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