मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

अक्षर-ज्ञान

 

पिछले प्रकरण मे शारीरिक सिक्षा और उसके सिलसिले मे थोड़ी दस्तकारी सिखाने का काम टॉल्सटॉय आश्रम मे किस प्रकार शुरू किया गया , इस हम कुछ हद तक देख चुके है । यद्यपि यह काम मै ऐसे ढंग से तो कर ही न सका जिससे मुझे संतोष हो, फिर भी उसमे थोड़ी-बहुत सफलता मिली थी । पर अक्षर-ज्ञान देना कठिन मालूम हुआ । मेरे पास उसके लिए आवश्यक सामग्री न थी । स्वयं मुझे जितना मै चाहता था उतना समय न था , न मुझमे उतनी योग्यता थी । दिनभर शारीरिक काम करते-करते मै थक जाता था और जिस समय थोड़ा आराम करने की जरूरत होती उसी समय पढ़ाई के वर्ग लेने होते थे । अतएव मै ताजा रहने के बदले जबरदस्ती स जाग्रत रह पाता था । इसलिए दुपहर को भोजन के बाद तुरन्त ही शाला का काम शुरू होता था । इसके सिवा दूसरा कोई भी समय अनुकूल न था ।

अक्षर-ज्ञान के लिए अधिक से अधिक तीन घंटे रखे गये थे । कक्षा मे हिन्दी, तामिल , गुजराती और उर्दू भाषाये सिखायी जाती थी । प्रत्येक बालक को उसकी मातृभाषा के द्वारा ही शिक्षा देने का आग्रह था । अंग्रेजी भी सबको सिखायी जाती थी । इसके अतिरिक्त गुजरात के हिन्दू बालको को थोड़ा संस्कृत का और सब बालको को थोड़ा हिन्दी का परिचय कराया जाता था । इतिहास , भूगोल और अंकगणित सभी को सिखाना था । यही पाठयक्रम था । तामिल और उर्दू सिखाने का काम मेरे जिम्मे था ।

तामिल का ज्ञान मैने स्टीमरों मे और जेल मे प्राप्त किया था । इसमे भी पोप-कृत उत्तम 'तामिल स्वयं शिक्षक' से आगे मै बढ़ नही सका था । उर्दू लिपि का ज्ञान भी उतना ही था जितना स्टीमर मे हो पाया था । और , फारसी-अरबी के खास शब्दो का ज्ञान भी उतना ही था, जितना मुसलमान मित्रो के परिचय से प्राप्त कर सका था ! संस्कृत जितनी हाईस्कूल मे सीखा था उतनी ही जानता था । गुजराती का ज्ञान भी उतना ही था जितना शाला मे मिला था ।

इतनी पूँजी से मुझे आपना काम चलाना था और इसमे मेरे जो सहायक थे वे मुझसे भी कम जानने वाले थे । परन्तु देशी भाषा के प्रति मेरे प्रेम ने अपनी शिक्षण शक्ति के विषया मे मेरी श्रद्धा ने, विद्यार्थियो के अज्ञान ने और उदारता ने इस काम मे मेरी सहायता की ।

तामिल विद्यार्थियो का जन्म दक्षिण अफ्रीका मे ही हुआ था , इसलिए वे तामिल बहुत कम जानते थे । लिपि तो उन्हें बिल्कुल नही आती थी ।

इसलिए मै उन्हें लिपि तथा व्याकरण के मूल तत्त्व सिखात था । यह सरल काम था । विद्यार्थी जानते थे कि तामिल बातचीत में तो वे मुझे आसानी से हरा सकते थे, और जब केवल तामिल जानने वाले ही मुझसे मिलने आते , तब वे मेरे दुभाषिये का काम करते थे । मेरी गाड़ी चली , क्योंकि मैने विद्यार्थियो के सामने अपने अज्ञान को छिपाने का कभी प्रयत्न ही नही किया । हर बात ने जैसा मै था, वैसा ही वे मुझे जानने लगे थे । इस कारण अक्षर-ज्ञान की भारी कमी रहते हुए भी मै उनके प्रेम और आदर से कभी वंचित न रहा ।

मुसलमान बालको को उर्दू सिखाना अपेक्षाकृत सरल था । वे लिपि जानते थे । मेरा काम उनमे वाचन की रूचि बढाने और उनके अक्षर सुधारने का ही था ।

मुख्यतः आश्रम के ये सब बालक निरक्षर थे और पाठशाला मे कहीं पढ़े हुए न थे । मैने सिखाते-सिखाते देखा कि मुझे उन्हें सिखाना तो कम ही है । ज्यादा काम तो उनका आलस्य छुड़ाने का , उनमे स्वयं पढ़ने की रूचि जगाने का और उनकी पढ़ाई पर निगरानी रखने का ही था । मुझे इतने काम से संतोष रहता था । यही कारण है कि अलग-अलग उमर के और अलग अलग विषयोवाले विद्यार्थियो को एक ही कमरे मे बैठाकर मै उनसे काम ले सकता था ।

पाठ्यपुस्तको की जो पुकार जब-जब सुनायी पड़ती है , उसकी आवश्यकता मुझे कभी मालूम नही हुई । मुझे याद नही पड़ता कि जो पुस्तके हमारे पास थी उनका भी बहुत उपयोग किया गया हो । हरएक बालक को बहुत सी पुस्तके दिलाने की मैने जरूरत नही देखी । मेरा ख्याल है कि शिक्षक ही विद्यार्थियो ती पाठ्यपुस्तक है। मेरे शिक्षको ने पुस्तको की मदद से मुझे जो सिखाया था, वह मुझे बहुत ही कम याद रहा है । पर उन्होने अपने मुँह से जो सिखाया था , उसका स्मरण आज भी बना हुआ है । बालक आँखो से जितना ग्रहण करते है, उसकी अपेक्षा कानो से सुनी हुई बातो को वे थोड़े परिश्रम से और बहुत अधिक मात्रा मे ग्रहण कर सकते है । मुझे याद नही पड़ता कि मै बालको को एक भी पुस्तक पूरी पढ़ा पाया था ।

पर अनेकानेक पुस्तको मे से जितना कुछ मै पचा पाया था , उसे मैने अपनी भाषा मे उनके सामने रखा था । मै मानता हूँ कि वह उन्हे आज भी याद होगा । पढ़ाया हुआ याद रखने मे उन्हें कष्ट होता था, जब कि मेरी कही हुई बात को वे उसी समय मुझे फिर सुना देते थे । जब मै थकावट के कारण या अन्य किसी कारण से मन्द और नीरस न होता , तब वे मेरी बात रस-पूर्वक और ध्यान-पूर्वक सुनते थे । उनके पूछे हुए प्रश्नो का उत्तर देने मे मुझे उनकी ग्रहण शक्ति का अन्दाजा हो जाता था ।

 

 

 

 

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