मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

गोखने से मिलन

 

दक्षिण अफ्रीका के बहुत से स्मरण अब मुझे छोडने पड रहे है । जब सन् 1914 मे सत्याग्रह की लड़ाई समाप्त हुई, तो गोखले की इच्छानुसार मुझे इंग्लैड होते हुए हिन्दुस्तान पहुँचना था । इसलिए जुलाई महीने मे कस्तूरबाई, केलनबैक और मै -- तीन व्यक्ति विलायत के लिए रवाना हुए । सत्याग्रह की लड़ाई के दिनो मे मैने तीसरे दर्जे मे सफर करना शुरू किया था । अतएव समुद्री यात्रा के लिए भी तीसरे दर्जे का टिकट कटाया । पर इस तीसरे दर्जे मे और हमारे यहाँ के तीसरे दर्जे मे बहुत अन्तर है । हमारे यहाँ सोने बैठने की जगह भी मुश्किल से मिलती है । स्वच्छता तो रह ही कैसे सकती है ? जब कि वहाँ के तीसरे दर्जे मे स्थान काफी था और स्वच्छता की भी अच्छी चिन्ता रखी जाती थी । कंपनी ने हमारे लिए अधिक सुविधा भी कर दी थी । कोई हमे परेशान न करे , इस हेतु से एक पाखाने मे खास ताला डालकर उसकी कुंजी हमे सौप दी गयी थी, और चूंकि हम तीनो फलाहारी थे, इसलिए स्टीमर के खजांची को आज्ञा दी गयी थी कि वह हमारे लिए सूखे और ताजे फलो का प्रबन्ध करे । साधारणतः तीसरे दर्जे के यात्रियो को फल कम ही दिये जाते है, सूखा मेवा बिल्कुल नही दिया जाता । इन सुविधाओ के कारण हमारे अठारह दिन बड़ी शांति से बीते ।

इस यात्रा के कई संस्मरण काफी जानने योग्य है । मि, केलनबैक को दूरबीन का अच्छा शौक था । दो-एक कीमती दूरबीने उन्होंने अपने साथ रखी थी । इस सम्बन्ध मे हमारे बीच रोज चर्चा होती थी । मै उन्हे समझाने का प्रयत्न करता कि यह हमारे आदर्श के और जिस सादगी तक हम पहुँचना चाहते है उसके अनुकूल नही है । एक दिन इसको लेकर हमारे बीच तीखी कहा-सुनी हो गयी। हम दोनो अपने केबन की खिड़की के पास खड़े थे ।

मैने कहा, 'हमारे बीच इस प्रकार के झगड़े हो, इससे अच्छा क्या यह न होगा कि हम इस दूरबीन को समुद्र मे फेंक दे और फिर इसकी चर्चा ही न करे ?'

मि. केलनबैक ने तुरन्त ही जवाब दिया, 'हाँ, इस मनहूस चीज को जरूर फेंक दो ।'

मैने कहा, 'तो मै फेंकता हूँ ।'

उन्होने उतनी ही तत्परता से उत्तर दिया, 'मै सचमुच कहता हूँ , जरूर फेंक दो ।'

मैने दूरबीन फेंक दी । वह कोई सात पौंड की थी । लेकिन उसकी कीमत जितनी दामो मे थी उससे अधिक उसके प्रति रहे मि. केलनबैक के मोह मे थी । फिर भी उन्होने इस सम्बन्ध मे कभी दुःख का अनुभव नही किया । उनके और मेरे बीच ऐसे कई अनुभब होते रहते थे । उनमे से एक यह मैने बानगी के रूप मे यहाँ दिया है ।

हम दिनो के आपसी सम्बन्ध से हमे प्रतिदिन नया सीखने को मिलता था , क्योकि दोनो सत्य का ही अनुकरण करते चलने का प्रयत्न करते थे । सत्य का अनुकरण करने से क्रोध, स्वार्थ, द्वेष इत्यादि सहज ही मिल जाते थे , शान्त न होते तो सत्य मिलता न था । राग-द्वेषादि से भरा मनुष्य सरल चाहे हो ले , वाचिक सत्य का पालन चाहे वह कर ले , किन्तु शुद्ध सत्य तो उसे मिल ही नही सका । शुद्ध सत्य की शोध करने का अर्थ है , राग-द्वेषादि द्वन्द्वो से सर्वथा मुक्ति प्राप्त करना ।

जब हमने यात्रा शुरू की थी , तब मुझे उपवास समाप्त किये बहुत समय नही बीता था । मुझमे पूरी शक्ति नही आयी थी । स्टीमर मे रोज डेक पर चलने की कसरत करके मै काफी खाने और खाये हुए को हजम करने का प्रयत्न करता था । लेकिन इसके साथ ही मेरे पैरो की पिंडलियो मे ज्यादा दर्द रहने लगा । विलायत पहुँचने के बाद भी मेरी पीड़ा कम न हुई, बल्कि बढ गयी । विलायत मे डॉ. जीवराज मेहता से पहचान हुई । उन्हे अपने उपवास और पिडलियो की पीड़ा का इतिहास सुनाने पर उन्होंने कहा, 'यदि आप कुछ दिन के लिए पूरा आराम न करेंगे , तो सदा के लिए पैरो के बेकार हो जाने का डर है ।' इसी समय मुझे पता चला कि लम्बे उपवास करने वाले को खोयी हुई ताकत झट प्राप्त करने का या बहुत खाने का लोभ कभी न करना चाहिये । उपवास करने की अपेक्षा छोड़ने मे अधिक साबधान रहना पड़ता है और शायद उसमे संयम भी अधिक रखना पड़ता है ।

मदीरा मे हमे समाचार मिले कि महायुद्ध के छिड़ने मे कुछ घडियो की ही देर है । इंग्लैंड की खाडी मे पहुँचते ही हमे लड़ाई छिड़ जाने के समाचार मिले और हमे रोक दिया गया । समुद्र मे जगह जगह सुरंगे बिछा दी गयी थी । उनसे बचाकर हमे साउदेम्पटन पहुँचाने मे एक दो दिन की देर हो गयी । 4 अगस्त को युद्ध घोषित किया गया । 6 अगस्त को हम विलायत पहुँचे ।

 

 

 

 

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