मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पहला भाग

धर्म की झाँकी

 

छह या सात साल से लेकर सोलह साल की उमर तक मैने पढ़ाई की, पर स्कूल में कहीं भी धर्म की शिक्षा नहीं मिली । यों कह सकते हैं कि शिक्षकों से जो आसानी से मिलना चाहिये था वह नहीं मिला । फिर भी वातावरण से कुछ-न-कुछ तो मिलता ही रहा । यहाँ धर्म का उदार अर्थ करना चाहियें । धर्म अर्थात् आत्मबोध, आत्मज्ञान । मैं वैष्णव सम्प्रदाय में जन्मा था , इसलिए हवेली में जाने के प्रंसग बार-बार आते थे । पर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई । हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं लगा । हवेली में चलने वाली अनीति की बातें सुनकर उसके प्रति उदासिन बन गया । वहाँ से मुझे कुछ भी न मिला ।

पर जो हवेली से न मिला , वह मुझे अपनी धाय रम्भा से मिला । रम्भा हमारे परिवार की पुरानी नौकरानी थी । उसका प्रेम मुझे आज भी याद हैं । मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मुझे भूत-प्रेत आदि का डर लगता था । रम्भा ने मुझे समझाया कि इसकी दवा रामनाम हैं । मुझे तो रामनाम से भी अधिक श्रद्धा रम्भा पर थी, इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि के भय से बचने के लिए मैने रामनाम जपना शुरु किया । यह जप बहुत समय तक नहीं चला । पर बचपन में जो बीच बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ । आज रामनाम मेरे लिए अमोघ शक्ति हैं । मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रम्भाबाई का बोया हुआ बीज हैं ।

इसी अरसे में मेरे चाचाजी के एक लड़के ने, जो रामायण के भक्त थे , हम दो भाईयो को राम-रक्षा का पाठ सिखाने का व्यवस्था की । हमने उसे कण्ठाग्र कर लिया और स्नान के बाद उसके नित्यपाठ का नियम बनाया । जब तक पोरबन्दर रहे, यह नियम चला । राजकोट के वातावरण में यह टिक न सका । इस क्रिया के प्रति भी खास श्रद्धा नहीं था । अपने बड़े भाई के लिए मन में जो आदर था उसके कारण और कुछ शुद्ध उच्चारणों के साथ राम-रक्षा का पाठ कर पाते हैं इस अभिमान के कारण पाठ चलता रहा ।

पर जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण । पिताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबन्दर में बीता था । वहाँ वे रामजी के मन्दिर मे रोज रात के समय रामायण सुनते थे । सुनानेवाले थे बीलेश्वर के लाधा महाराज नामक एक पंडित थे । वे रामचन्द्रजी के परम भक्त थे । उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें कोढ़ की बीमारी हुई तो उसका इलाज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढे हुए बेलपत्र लेकर कोढ़ वाले अंग पर बाँधे और केवल रामनाम का जप शुरु किया । अन्त मे उनका कोढ़ जड़मूल से नष्ट हो गया । यह बात सच हो या न हो , हम सुनने वालों ने तो सच ही मानी । यह सच भी हैं कि जब लाधा महाराज ने कथा शुरु की तब उनका शरीर बिल्कुल नीरोग था । लाधा महाराज का कण्ठ मीठा था । वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते था । स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे । और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे । उस समय मेरी उमर तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता हैं कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था । यह रामायण - श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद हैं । आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ ।

कुछ महीनों के बाद हम राजकोट आये । वहाँ रामायण का पाठ नहीं होता था । एकादशी के दिन भागवत जरुर पढ़ी जाती थी । मैं कभी-कभी उसे सुनने बैठता था । पर भटजी रस उत्पन्न नहीं कर सके । आज मैं यह देख सकता हूँ कि भागवत एक ऐसा ग्रंथ हैं, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता हैं । मैने तो से उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा हैं । लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत-भूपण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो ख्याल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुँह से भागवत सुनी होती तो उस पर उसी उमर में मेरा गाढ़ प्रेम हो जाता । बचपन में पड़े शूभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़े जमाते हैं , इसे मैं खूब अनुभव करता हूँ ; और इस कारण उस उमर में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता हैं । राजकोट में मुझे अनायास ही सब सम्प्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली । मैने हिन्दू धर्म के प्रत्येक सम्प्रदाय का आदर करना सीखा , क्योकि माता-पिता वैष्णव-मन्दिर में , शिवालय में और राम-मन्दिर में भी जाते और हम भाईयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे ।

फिर पिताजी के पास जैन धर्माचार्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे । पिताजी के साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे । इसके सिवा, पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र थे । वे अपने-अपने धर्म की चर्चा करते और पिताजी उनकी बातें सम्मान पूर्वक सुना करते थे । 'नर्स' होने के कारण ऐसी चर्चा के समय मैं अक्सर हाजिर रहता था । इस सारे वातावरण का प्रभाव मुझ पर पड़ा कि मुझ में सब धर्मों के लिए समान भाव पैदा हो गया ।

एक ईसाई धर्म अपवादरुप था । उसके प्रति कुछ अरुचि थी । उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे । वे हिन्दू देवताओ की और हिन्दू धर्म को मानने वालो की बुराई करते थे । मुझे यह असह्य मालूम हुआ । मैं एकाध बार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊँगा । दूसरी बार फिर वहाँ खड़े रहने की इच्छा ही न हुई । उन्ही दिनो एक प्रसिद्ध हिन्दू के ईसाई बनने की बात सुनी । गाँव मे चर्चा थी कि उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देते समय गोमाँस खिलाया गया और शराब पिलायी गयी । उनकी पोशाक भी बदल दी गयी औऱ ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और अंग्रेजी टोपी पहनने लगे । इन बातों से मुझे पीड़ा पहुँची । जिस धर्म के कारण गोमाँस खाना पड़े, शराब पीनी पड़े और अपनी पोशाक बदलनी पड़े, उसे धर्म कैसे कहा जाय ? मेरे मन ने यह दलील की । फिस यह भी सुननें में आया कि जो भाई ईसाई बने थे, उन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म की, रीति-रिवाजों और देश की निन्दा करना शुरू कर दिया था । इन सब बातों से मेरे मन में ईसाई धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी ।

इस तरह यद्यपि दूसरे धर्मो के प्रति समभाव जागा, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझ में ईश्वर के प्रति आस्था थी । इन्हीं दिनों पिताजी के पुस्तक-संग्रह में से मनुस्मृति की भाषान्तर मेरे हाथ मे आया । उसमें संसार की उत्पत्ति आदि की बाते पढ़ी । उन पर श्रद्धा नहीं जमी, उलटे थोड़ी नास्तिकता ही पैदा हुई । मेरे चाचाजी के लड़के की , जो अभी जीवित हैं , बुद्धि पर मुझे विश्वास था । मैने अपनी शंकाये उनके सामने रखी , पर वे मेरा समाधान न कर सके । उन्होंने मुझे उत्तर दिया : 'सयाने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तुम खुद दे सकोगे । बालको को ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिये ।' मैं चुप रहा । मन को शान्ति नहीं मिली । मनुस्मृति के खाद्य-विषयक प्रकरण में और दूसरे प्रकरणों में भी मैने वर्तमान प्रथा का विरोध पाया । इस शंका का उत्तर भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही मिला । मैने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि 'किसी दिन बुद्धि खुलेगी, अधिक पढूँगा और समझूँगा ।' उस समय मनुस्मृति को पढ़कर में अहिंसा तो सीख ही न सका । माँसाहार की चर्चा हो चुकी हैं । उसे मनुस्मृति का समर्थन मिला । यह भी ख्याल हुआ कि सर्पादि और खटमल आदि को मारनी नीति हैं । मुझे याद हैं कि उस समय मैने धर्म समझकर खटमल आदि का नाश किया था ।

पर एक चीज ने मन में जड़ जमा ली -- यह संसार नीति पर टिका हुआ हैं । नीतिमात्र का समावेश सत्य में हैं । सत्य को तो खोजना ही होगा । दिन-पर-दिन सत्य की महीमा मेरे निकट बढ़ती गयी । सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गयी , और अभी हो रही हैं ।

फिर नीति का एक छप्पय दिल में बस गया । अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता हैं , यह एक जीवन सूत्र ही बन गया । उसमे मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरु किया । अपकारी का भला चाहना और करना , इसका मैं अनुरागी बन गया । इसके अनगिनत प्रयोग किये। वह चमत्कारी छप्पय यह हैं :

पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे
आवी नमावे शीश , दंडवत कोडे कीजे ।
आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए
आप उगारे प्राण, ते तणा दुःखमां मरीए ।
गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करी
अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही ।

(जो हमें पानी पिलाये , उसे हम अच्छा भोजन कराये । जो हमारे सामने सिर नवाये, उसे हम उमंग से दण्डवत् प्रणाम करे । जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे, उसका हम मुहरों की कीमत का काम कर दे । जो हमारे प्राण बचाये , उसका दुःख दूर करने के लिए हम अपने प्राणो तक निछावर कर दे । जो हमारी उपकार करे , उसका हमे मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिये । लेकिन जग मे सच्चा और सार्थक जीना उसी का हैं , जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता हैं ।)

 

 

 

 

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