मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग पहला भाग चोरी और प्रायश्चित
माँसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया हैं । ये दोष विवाह से पहले का अथवा उसके तुरन्त बाद के हैं । अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीडी पीने को शौक लगा । हमारे पास पैसे नहीं थे । हम दोनो में से किसी का यह ख्याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा हैं, अथवा गन्ध मे आनन्द हैं । पर हमे लगा सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मजा हैं । मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी । उन्हें और दूसरो को धुआँ उड़ाते देखकर हमे भी बीड़ी फूकने की इच्छा हुई । गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूँठ फैंक देके , हमने उन्हें चुराना शुरू किया । पर बीड़ी के ये ठूँठ हर समय निल नहीं सकते थे , औऱ उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था । इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से हम ने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे । पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहाँ । हम जानते थे कि बड़ो के देखते तो बीडी पी ही नहीं सकते । जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया । इसी बीच सुना एक प्रकार का पौधा होता हैं जिसके डंठल बीड़ी की तरप जलते हैं और फूँके जा सकते है । हमने उन्हें प्राप्त किया और फूँकने लगे ! पर हमें संतोष नहीं हुआ । अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी । हमें दुःख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे । हम उब गये और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर किया ! पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दें? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती हैं । हम जंगल में जाकर बीच ले आये । शाम का समय तय किया । केदारनाथजी के मन्दिर की दीपमाला में घी चढ़ाया , दर्शन कियें और एकान्त खोज लिया । पर जहर खाने की हिम्मत न हूई । अगर तुरन्त ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा ? मरने से लाभ क्या ? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाये ? फिक भी दो-चार बीज खाये । अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी । दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मन्दिर जाकर दर्शन करके शान्त हो जाये और आत्महत्या की बात भूल जाये । मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल हैं , आत्महत्या करना सरल नहीं । इसलिए कोई आत्महत्या करने का धमकी देता हैं, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता हैं अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर हो ही नहीं । आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनो जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर पैसे बीड़ी खरीदने और फूँकने की आदत भूल गये । फिर कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छा नहीं हुई । मैने हमेशा यह माना हैं कि यह आदत जंगली , गन्दी और हानिकारक हैं । दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों हैं, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूँ । रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी पी जाती हैं, वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता हैं औऱ धुँए से मेरा दम घुटने लगता हैं । बीड़ी के ठूँठ चुराने और इसी सिलसिले में नोकर के पैसे चुराने की के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ , उसे मैं अधिक गम्भीर मानता हूँ । बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर बारह तेरह साल की रही होगी ; शायद इससे कम भी हो । दूसरी चोरी के समय मेरी उमर पन्द्रह साल की रही होगी । यह चोरी मेरे माँसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी । उन पर मामूली सा, लगभग पच्चीस रुपये का कर्ज हो गया था । उसकी अदायगी के बारे हम दोनो भाई सोच रहे थे । मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था । कड़ा कटा । कर्ज अदा हुआ । पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गयी । मैने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करुँगा ही नहीं । मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिये । पर जीभ न खुली । पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे , इसका डर तो था ही नहीं । मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो । पर खुद दुःखी होगे, शायद सिर फोड़ लें । मैने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर लेना चाहिये , उसके बिना शुद्धि नहीं होगी । आखिर मैने तय किया कि चिट्ठी लिख कर दोष स्वीकार किया जाये और क्षमा माँग ली जाये । मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोहाथ दी । चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही । आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दुःख में न डाले और भविष्य मे फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की । मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी । मैं उनके तखत के सामने बैठ गया । उन दिनों वे भगन्दर की बीमारी से पीड़ित थे , इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे । खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे । उन्होंने चिट्ठी पढ़ी । आँखों से मोती की बूँदे टपकी । चिट्ठी भीग गयी । उन्होंने क्षण भर के आँखें मूंदी , चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लौट गये । मैं भी रोया । पिताजी का दुःख समझ सका । अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज भी सम्पूर्णता से खींच सकता । आज भी वह मेरी आँखो के सामने इतना स्पष्ट हैं । मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला । मैं शुद्ध बना । इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता हैं । रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे । (राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता हैं ।) मेरे लिए यह अंहिसा का पदार्थपाठ था । उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा , पर आज मैं इसे शुद्ध अंहिसा के नाम से पहचान सकता हूँ । ऐसी अंहिसा के व्यापक रुप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता हैं ? ऐसी व्यापक अंहिसा की शक्ति की थाह लेना असम्भव हैं । इस प्रकार की शान्त क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी । मैने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे । पर उन्होंने इतनी अपार शान्ति जो धारण की , मेरे विचार उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी । जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपराध स्वीकार कर लेता हैं और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता हैं, वह शुद्धतम प्रायश्चित करता हैं ।
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