मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

तीसरा भाग

फिर दक्षिण अफ्रीका में

 

मणीलाल स्वस्थ तो हुआ , पर मैने देखा कि गिरगाँव वाला घर रहने योग्य नही था । उसमे सील थी । पर्याप्त उजाला नही था । अतएव रेवा-शंकर भाई से सलाह करके हम दोनो ने बम्बई के किसी उपनगर मे खुली जगह बंगला लेने का निश्चय किया । मैं बांदरा, सांताक्रूज वगैरा मे भटका । बांदरा मे कसाईखाना था , इसलिए वहाँ रहने की हमने से किसी की इच्छा नही हुई । घाटकोपर वगैरा समुद्र से दूर लगे । आखिर सांताक्रूज मे एक सुन्दर बंगला मिल गया । हम उसमे रहने गये और हमने यह अनुभव किया कि आरोग्य की दृष्टि से हम सुरक्षित हो गये हैं । मैने चर्चगेट जाने के लिए पहले दर्जे का पास खरीद लिया । पहले दर्जे मे अकसर मैं अकेला ही होता था, इससे कुछ गर्व का भी अनुभव करता था, ऐसा याद पड़ता हैं । कई बार बांदरा से चर्चगेट जाने वाली खास ट्रेन पकड़ने के लिए मै सांताक्रूज से बांदरा तक पैदल जाता था ।

मैने देखा कि मेरा धंधा आर्थिक दृष्टि से मेरी अपेक्षा से अधिक अच्छा चल निकला । दक्षिण अफ्रीका के मुवक्किल मुझे कुछ-न-कुछ काम देते रहते थे । मुझे लगा कि उससे मेरा खर्च सरलता-पूर्वक चल जाएगा ।

हाईकोर्ट का काम तो मुझे अभी कुछ न मिलता था । पर उन दिनों 'मूट' (अभ्यास के लिए फर्जी मुकदमे मे बहस करना) चलती थी, मै उसमे मै जाया करता था । चर्चा मे सम्मिलित होने की हिम्मत नही थी । मुझे याद है कि उसमे जमियतराम नानाभाई अच्छा हिस्सा लेते थे । दूसरे नये बारिस्टरो की तरह मै भी हाईकोर्ट मे मुकदमे सुनने जाया करता था । वहाँ तो कुछ जानने को मिलता, उसकी तुलना मे समुद्र की फरफराती हुई हवा मे झपकियाँ लेने मे अधिक आनन्द आता था । मै दूसरे साथियो को भी झपकियाँ लेते देखता था , इससे मुझे शरम न मालूम होती थी । मैने देखा कि झपकियाँ लेना फैशन मे शुमार हो गया था ।

मैने हाईकोर्ट के पुस्तकालय का उपयोग करना शुरु किया और वहाँ कुछ जान-पहजान भी शुरु की । मुझे लगा कि थोडे समय मे मै भी हाईकोर्ट मे काम करने लगूँगा ।

इस प्रकार एक ओर से मेरे धंधे मे कुछ निश्चिन्तता आने लगी ।

दूसरी ओर गोखले की आँख तो मुझ पर लगी ही रहती थी । हफ्ते मे दो-तीन बार चेम्बर मे आकर वे मेरी कुशल पूछ जाते और कभी कभी अपने खास मित्रों को भी साथ मे लाया करते थे । अपनी कार्य-पद्धति से भी वे मुझे परिचित करते रहते थे ।

पर यह कहा जा सकता हैं कि मेरे भविष्य के बारे मे ईश्वर ने मेरा सोचा कुछ भी न होने दिया ।

मैने सुस्थिर होने का निश्चय किया और थोडी स्थिरता अनुभव की कि अचानक दक्षिण अफ्रीका का तार मिला, 'चेम्बरलेन यहाँ आ रहै हैं, आपको आना चाहिये ।' मुझे अपने वचन का स्मरण तो था ही । मैने तार दिया, 'मेरा खर्च भेजिये, मै आने को तैयार हूँ ।' उन्होंने तुरन्त रुपये भेज दिये और मै दफ्तर समेट कर रवाना हो गया ।

मैने सोचा था कि मुझे एक वर्ष तो सहज ही लग जायगा । इसलिए बंगला रहने दिया और बाल-बच्चो को वहीं रखना उचित समझा ।

उस समय मै मानता था कि जो नौजवान देश मे कोई कमाई न करते हो और साहसी हो, उनके लिए परदेश चला जाना अच्छा हैं । इसलिए मैं अपने साथ चार-पाँच नौजवानो को लेता गया । उनमे मगनलाल गाँधी भी थे ।

गाँधी कुटुम्ब बड़ा था । आज भी हैं । मेरी भावना यह थी कि उनमें से जो स्वतंत्र होना चाहे, वे स्वतंत्र हो जाये । मेरे पिता कइयो को निभाते थे, पर रियासती नौकरी मे । मुझे लगा कि वे इस नौकरी से छूट सके तो अच्छा हो । मै उन्हें नौकरियाँ दिलाने मे मदद नही कर सकता था । शक्ति होती तो भी ऐसा करने की मेरी इच्छा न थी । मेरी धारणा यह थी कि वे और दूसरे लोग भी स्वावलम्बी बने तो अच्छा हो ।

पर आखिर तो जैसे-जैसे मेरे आदर्श आगे बढते गये (ऐसा मैं मानता हूँ ) , वैसे-वैसे इन नौजवानो के आदर्शो को भी मैने अपने आदर्शो की ओर मोडने का प्रयत्न किया । उनमे मगनाला गाँधी को अपने मार्ग पर चलाने मे मुझे बहुत सफलता मिला । पर इस विषय की चर्चा आगे करूँगा ।

बाल-बच्चो का वियोग, बसाये हुए घर को तोड़ना, निश्चित स्थिति मे से अनिश्चित में प्रवेश करना - यह सब क्षणभर तो अखरा । पर मुझे तो अनिश्चित जीवन की आदत पड़ गयी थी । इस संसार में, जहाँ ईश्वर अर्थात् सत्य के सिवा कुछ भी निश्चित नही हैं . निश्चितता का विचार करना ही दोषमय प्रतीत होता हैं । यह सब जो हमारे आसपास दीखता हैं और होता है, सो अनिश्चित हैं, क्षणिक है । उसमे एक परम तत्त्व निश्चित रुप से छिपा हुआ हैं, उसकी झाँकी हमे हो जाये , उस पर हमारी श्रद्धा बनी रहे, तभी जीवन सार्थक होता है । उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ है ।

यह नहीं कहा जा सकता कि मै डरबन एक दिन ही पहले पहुँचा । मेरे लिए वहाँ काम तैयार ही था । मि. चेम्बरलेन के पास डेप्युटेशन के जाने की तारीख निश्चित हो चुकी थी । मुझे उनके सामने पढ़ा जानेवाला प्रार्थना पत्र तैयार करना था और डेप्युटेशन के साथ जाना था ।

 

 

 

 

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