मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग दूसरा भाग राजनिष्ठा और शुश्रूषा
शुद्ध राजनिष्ठा जितनी मैने अपने में अमुभव की हैं , उतनी शायद ही दूसरे मे देखी हो । मैं देख सकता हूँ कि इस राजनिष्ठा का मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था । राजनिष्ठा का अथवा दूसरी किसी वस्तु का स्वांग मुझ से कभी भरा ही न जा सका । नेटाल ने जब मै किसी सभा में जाता , तो वहाँ 'गॉड सेव दि किंग' (ईश्वर राजा की रक्षा करे ) गीत अवश्य गाया जाता था । मैने अनुभव किया कि मुझे भी उसे गाना चाहिये । ब्रिटिश राजनीति मे दोष तो मैं तब भी देखता था, फिर भी कुल मिलाकर मुझे वह नीति अच्छी लगती थी । उस समय मै मानता था कि ब्रिटिश शासन और शासको का रुख कुल मिलाकर जनता का पोषण करनेवाला हैं । दक्षिण अफ्रीका मे मै इससे उलटी नीति देखता था , वर्ण-द्वेष देखता था । मै मानता था कि यह क्षणिक औऱ स्थानिक हैं । इस कारण राजनिष्ठा मे मैं अंग्रेजो से भी आगे बढ़ जाने का प्रयत्न करता था । मैने लगन के साथ मेहनत करके अंग्रेजे के राष्ट्रगीत 'गॉड सेव दि किंग' की लय सीख ली थी । जब वह सभाओ मे गाया जाता , तो मै अपना सुर उसमे मिला दिया करता था । और जो भी अवसर आडम्बर के बिना राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के आते , उनमे मैं सम्मिलित होता था । इस राजनिष्ठा को अपनी पूरी जिन्दगी में मैने कभी भुनाया नही । इससे व्यक्तिगत लाभ उठाने का मैने कभी विचार तक नही किया । राजभक्ति को ऋण समझकर मैने सदा ही उसे चुकाया हैं । मै जब हिन्दुस्तान आया था तब महारानी विक्टोरिया का डायमंड जुबिली (हीरक जयन्ती) की तैयारियाँ चल रही थी । राजकोट मे भी एक समिति बनी । मुझे उसका निमंत्रण मिला । मैने उसे स्वीकार किया । उसने मुझे दम्भ की गंध आयी । मैने देखा कि उसमे दिखावा बहुत होता हैं । यह देखकर मुझे दुःख हुआ । समिति मे रहने या न रहने का प्रश्न मेरे सामने खड़ा हुआ । अन्त मे मैने निश्चय किया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मानूँ । एक सुझाव यह था कि वृक्षारोपण किया जाय । इसमे मुझे दम्भ दिखायी पड़ा । ऐसा जान पड़ा कि वृक्षारोपण केवल साहबो को खुश करने के लिए हो रहा हैं । मैने लोगो को समझाने का प्रयत्न किया कि वृक्षारोपन के लिए कोई विवश नही करता, वह सुझावमात्र हैं । वृक्ष लगाने हो तो पूरे दिल से लगाने चाहिये , नही तो बिल्कुल न लगाने चाहिये । मुझे ऐसा याद पड़ता हैं कि मै ऐसा कहता था, तो लोग मेरी बात को हँसी मे उड़ा देते थे । अपने हिस्से का पेड़ मैने अच्छी तरह लगाया और वह पल-पुसकर बढ़ा , इतना मुझे याद हैं । 'गॉड सेव दि किंग' गीत मै अपने परिवार के बालको को सिखाता था । मुझे याद हैं कि मैने उसे ट्रेनिंग परिवार के विद्यार्थियों को सिखाया था । लेकिन वह यही अवसर था अथवा सातवें एडवर्ड के राज्यारोहण का अवसर था , सो मुझे ठीक याद नही हैं । आगे चलकर मुझे यह गीत गाना खटका । जैसे-जैसे अहिंसा सम्बन्धी मेरे मन मे ढृढ होते गये , वैसै वैसे मै अपनी वाणी और विचारो पर अधिक निगरानी रखने लगा । उस गीत मे दो पंक्तियाँ ये भी हैं : उसके शत्रुओ का नाश कर, उनके षड्यंत्रो को विफल कर । इन्हे गाना मुझे खटका । अपने मित्र डॉ. बूथ को मैने अपनी यह कठिनाई बतायी । उन्होने भी स्वीकार किया कि यह गाना अहिंसक मनुष्य को शोभा नही देता । शत्रु कहलाने वाले लोग दगा ही करेंगे , यह कैसे मान लिया जाय ? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन्हे हमने शत्रु माना वे बुरे ही होगे ? ईश्वर से तो न्याय ही माँगा जा सकता हैं । डॉ. बूथ ने इस दलील को माना । उन्होने अपने समाज मे गाने के लिए नये गीत की रचना की । डॉ. बूथ का विशेष परिचय हम आगे करेंगे । राजनिष्ठा की तरह शुश्रूषा का गुण भी मुझ मे स्वाभाविक था । यह कहा जा सकता हैं कि बीमारो की सेवा करने का मुझे शौक था , फिर वे अपने हो या पराये । राजकोट मे मेरा दक्षिण अफ्रीका का काम चल रहा था , इसी बीच मैं बम्बई हो आया । खास-खास शहरो मे सभाये करके विशेष रुप से लोकमत तैयार करने का मेरा इरादा था । इसी ख्याल से मै वहाँ गया था । पहले मैं न्यायमूर्ति रानडे से मिला । उन्होने मेरी बात ध्यान से सुनी और मुझे सर फीरोजशाह मेहता से मिलने की सलाह दी । बाद में मैं जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी से मिला । उन्होने मेरी बात सुनकर वही सलाह दी और कहा , 'जस्टिस रानडे और मैं आपका बहुत कम मार्गदर्शन कर सकेगे । हमारी स्थिति तो आप जानते हैं । हम सार्वजनिक काम मे हाथ नही बँटा सकते । पर हमारी भावना तो आपके साथ है ही । सच्चे मार्गदर्शक तो सर फीरोजशाह हैं ।' सर फीरोजशाह से तो मुझे मिलना ही था । पर इन दो गुरुजनो के मुँह से उनकी सलाह सुनकर मुझे इस बात का विशेष बोध हुआ कि सर फीरोजशाह का जनता पर कितना प्रभुत्व था । मै सप फीरोजशाह से मिला । उनके तेज से चकाचौंध हो जाने को तो मै तैयार था ही । उनके लिए प्रयुक्त होने वाले विशेषणों को मैं सुन चुका था । मुझे 'बम्बई के शेर' और 'बम्बई के बेताज बादशाह' से मिलना था । पर बादशाह ने मुझे डराया नही । पिता जिस प्रेम से अपने नौजवान बेटे से मिलता हैं , ऊसी तरह वे मुझसे मिले । उनसे मुझे उनके 'चेम्बर' मे मिलना था । उनके पास उनके अनुयायियों का दरबार तो भरा ही रहता था । वाच्छा थे, कामा थे । इनसे उन्होने मेरी पहचान करायी । वाच्छा का नाम मै सुन चुका था । वे सर फीरोजशाह के दाहिने हाथ माने जाते थे । वीरचन्द गाँधी मे अंकशास्त्री के रुप में मुझे उनका परिचय दिया था । उन्होने कहा, 'गाँधी, हम फिर मिलेंगे ।' इस सारी बातचीत में मुश्किल से दो मिनट लगे होगे । सर फीरोजशाह ने मेरी बात सुन ली । न्यानमूर्ति रानडे और तैयबजी से मिल चुकने की बात भी मैने उन्हे बतता दी । उन्होने कहा, 'गाँधी, तुम्हारे लिए मुझे आम सभा करनी होगी । मुझे तम्हारी मदद करनी चाहिये ।' फिर अपने मुंशी की ओर मुडे और उसे सभा का दिन निश्चित करने को कहा । दिन निश्चित करके मुझे बिदा किया । सभा से एक दिन पहले आकर मिलने की आज्ञा की । मै निर्भय होकर मन ही मन खुश होता हुआ घर लौटा । बम्बई की इस यात्रा मे मैं वहाँ रहने वाले अपने बहनोई से मिलने गया । वे बीमार थे । घर मे गरीबी थी । अकेली बहन से उनकी सेवा-शूश्रूषा हो नही पाती थी । बीमारी गंभीर थी। मैने उन्हें अपने साथ राजकोट चलने को कहा । वे राजी हो गया । बहन-बहनोई को लेकर मै राजकोट पहुँचा । बीमारी अपेक्षा से अधिक गंभीर हो गयी । मैने उन्हे अपने कमरे मे रखा । मैं सारा दिन उनके पास ही रहता था । रात मे भी जागना पड़ता था । उनकी सेवा करते हुए मै दक्षिण अफ्रीका का काम कर रहा था । बहनोई का स्वर्गवास हो गया । पर उनके अंतिम दिनो मे उनकी सेवा करने का अवसर मुझे मिला , इससे मुझे बड़ा संतोष हुआ । शुश्रूषा के मेरे इस शौक ने आगे चलकर विशाल रुप धारण कर लिया । वह भी इस हद कि उसे करने मे मै अपना धंधा छोड देता था । अपनी धर्मपत्नी को और सारे परिवार को भी उसमे लगा देता था । इस वृति को मैने शौक कहा हैं , क्योकि मैने देखा हैं कि जब ये गुण आनन्ददायक हो जाते हैं तभी निभ सकते हैं । खींच-तानकर अथवा दिखावे के लिए या लोकलाज के कारण की जाने वाली सेवा आदमी को कुचल देती हैं , औऱ ऐसी सेवा करते हुए भी आदमी मुरझा जाता हैं । जिस सेवा आनन्द नही मिलता, वह न सेवक को फलती हैं, न सेव्य को रुचिकर लगती हैं । जिस सेवा मे आनन्द मिलता है , उस सेवा के सम्मुख ऐश-आराम या धनोपार्जन इत्यादि कार्य तुच्छ प्रतीत होते है ।
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