मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

दूसरा भाग

पूना में

 

सर फिरोजशाह मेहता ने मेरा मार्ग सरल कर दिया । बम्बई से मै पूना गया । मुझे मालूम था कि पूना में दो दल थे । मुझे तो सबकी मदद की जरुरत थी । मै लोकमान्य तिलक से मिला । उन्होने कहा, 'सब पक्षो की मदद लेने का आपका विचार ठीक हैं । आपके मामले मे कोई मतभेद नही हो सकता । लेकिन आपके लिए तटस्छ सभापति चाहिये । आप प्रो. भांडारकर से मिलिये । वे आज कल किसी आन्दोलन मे सम्मिलित नही होते । पर सम्भव है कि इस काम के लिए आगे आ जाये । उनसे मिलने के बाद मुझे परिणाम से सूचित कीजिये । मै आपकी पूरी मदद करना चाहता हूँ । आप प्रो. गोखले से तो मिलेंगे ही । मेरे पास आप जब आना चाहे , निःसंकोच आइये ।'

लोकमान्य का यह मेरा प्रथम दर्शन था । मैं उनकी लोकप्रियता का कारण तुरन्त समझ गया ।

यहाँ से मैं गोखले के पास गया । वे फर्ग्यूसन कॉलेज मे थे । मुझ से बड़े प्रेम से मिले और मुझे अपना बना लिया । उनसे भी मेरा यह पहला ही परिचय था । पर ऐसा जान पड़ा, मानो हम पहले मिल चुके हो । सर फीरोजशाह मुझे हिमालय जैसे, लोकमान्य समुद्र जैसे और गोखले गंगा जैसे लगे । गंगा मे मैं नहा सकता था । हिमालय पर चढा नही जा सकता था । समुद्र मे डूबने का डर था । गंगा की गोद मे तो खेला जा सकता था । उसमे डोगियां लेकर सैर की जा सकती थी । गोखले मे बारीकी से मेरी जाँच की -- उसी तरह, जिस तरह स्कूल मे भरती होते समय किसी विद्यार्थी की की जाती हैं । उन्होने मुझे बताया कि मैं किस-किस से और कैसे मिलूँ और मेरा भाषण देखने को माँगा । मुझे कॉलेज की व्यवस्था दिखायी । जब जरुरत हो तब मिलने को कहा । डॉ. भांडारकर के जवाब की खबर देने को कहा और मुझे बिदा किया । राजनीति के क्षेत्र मे जो स्थान गोखले मे जीते-जी मेरे हृदय मे प्राप्त किया और स्वर्गवास के बाद आज भी जो स्थान उन्हे प्राप्त हैं , वह और कोई पा नही सका ।

रामकृष्ण भांडारकार ने मेरा वैसा ही स्वागत किया, जैसा कोई बाप बेटे का करता हैं । उनके यहाँ गया तब दुपहरी का समय था । ऐसे समय मे भी मैं अपना काम कर रहा था , यह चीज ही इस उद्यम शास्त्री को प्यारी लगी । और तटस्थ सभापति के लिए मेरे आग्रह की बात सुनकर 'देट्स इट देट्स इट' (यह ठीक हैं , यह ठीक हैं ) के उद्गार उनके मुँह से सहज ही निकल पड़े ।

बातचीत के अन्त में वे बोले, 'तुम किसी से भी पूछोगे तो वह बतलायेगा कि आजकल मैं किसी राजनीतिक काम मे हिस्सा नही लेता हूँ, पर तुम्हे मैं खाली हाथ नही लौटा सकता । तुम्हारा मामला इतना मजबूत हैं और तुम्हारा उद्यम इतना स्तुत्य हैं कि मै तुम्हारी सभा मे आने से इनकार कर ही नही सकता । यह अच्छा हुआ कि तुम श्री तिलक और श्री गोखले से मिल लिये । उनसे कहो कि मैं दोनो पक्षो द्वारा बुलायी गयी सभा मे खुशी से आऊँगा और सभापति-पद स्वीकार करुँगा । समय के बारे मे मुझ से पूछने की जरुरत नही हैं । दोनो पक्षो को जो समय अनुकूल होगा, उसके अनुकूल मै हो जाऊँगा ।' यों कहकर उन्होने धन्यवाद औऱ आशीर्वाद के साथ मुझे बिदा किया ।

बिना किसी हो-हल्ले और आडम्बर के एक सादे मकान मे पूना की इस विद्वान और त्यागी मंडली ने सभा की , और मुझे सम्पूर्ण प्रोत्साहन के साथ बिदा किया ।

वहाँ से मैं मद्रास गया । मद्रास तो पागल हो उठा । बालासुन्दरम के किस्से का सभा पर गहरा असर पड़ा । मेरे लिए मेरा भाषण अपेक्षाकृत लम्बा था । पूरा छपा हुआ था । पर सभा ने उसका एक एक शब्द ध्यानपूर्वक सुना । सभा के अन्त में उस 'हरी पुस्तिका' पर लोग टूट पड़े । मद्रास में संशोधन औप परिवर्धन के साथ उसकी दूसरी आवृति दस हजार की छपायी थी । उसका अधिकांश निकल गया । पर मैने देखा कि दस हजार की जरुरत नही थी । मैने लोगो के उत्साह का अन्दाज कुछ अधिक ही कर लिया था । मेरे भाषण का प्रभाव तो अंग्रेजी जानने वाले समाज पर ही पडा था । उस समाज के लिए अकेले मद्रास शहर मे दस हजार प्रतियों कि आवश्यकता नही हो सकती थी ।

यहाँ मुझे बड़ी से बड़ी मदद स्व. जी. परमेश्वरन पिल्लै से मिली । वे 'मद्रास स्टैंडर्ड' के सम्पादक थे । उन्होने इस प्रश्न का अच्छा अध्ययन कर लिया था । वे मुझे अपने दफ्तर मे समय-समय पर बुलाते थे और मेरा मार्गदर्शन करते थे । 'हिन्दू' के जी. सुब्रह्मण्यम से भी मैं मिला था । उन्होने और डॉ. सुब्रह्यण्यम ने भी पूरी सहानुभूति दिखायी थी । पर जी. परमेश्वरन पिल्लै ने तो मुझे अपने समाचार पत्र का इस काम के लिए मनचाहा उपयोग करने दिया और मैने निःसंकोच उसका उपयोग किया भी । सभा पाच्याप्पा हॉल में हुई थी और मेरा ख्याल हैं कि डॉ. सुब्रह्मण्यम उसके सभापति बने थे । मद्रास मे सबके साथ विशेषकर अंग्रेजी मे ही बोलना पड़ता था, फिर भी मैं बहुतो से इतना प्रेम और उत्साह पाया कि मुझे घर जैसा ही लगा । प्रेम किन बन्धनों के नही तोड़ सकता ?

 

 

 

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