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हिन्दी के कवि

जगदीश गुप्त

(जन्म 1926 ई., मृत्यु 16 मई 2001)

जगदीश  गुप्त का जन्म शाहाबाद, जिला हरदोई में हुआ। शिक्षा एम.ए., डी.फिल. तक हुई। ये प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं। जगदीश गुप्त उच्चकोटि के कवि, गद्यकार और आलोचक हैं। ये नई कविता आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। इनके मुख्य काव्य-संग्रह हैं : 'नाव के पांव , 'आदित्य एकांत, 'हिम- विध्द, 'शब्द-दंश, 'शम्बूक और 'युग्म। इन्होंने गुजराती तथा ब्रजभाषा पर शोध-ग्रंथ लिखे हैं। इनकी चित्रकला में भी विशेष रुचि है। ये ब्रज-साहित्य मण्डल उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सम्मानित हुए हैं।

प्रकृति रमणीक है
'प्रकृति रमणीक है।
जिसने इतना ही कहा-
उसने संकुल सौंदर्य के घनीभूत भार को
आत्मा के कंधों पर
पूरा नहीं सहा!
भीतर तक
क्षण भर भी छुआ यदि होता-
सौंदर्य की शिखाओं ने,
जल जाता शब्द-शब्द,
रहता बस अर्थकुल मौन शेष।
ऐसा मौन-जिसकी शिराओं में,
सारा आवेग-सिंधु,
पारे-सा-
इधर-उधर फिरता बहा-बहा!
प्रकृति ममतालु है!
दूधभरी वत्सलता से भीगी-
छाया का आंचल पसारती,
-ममता है!
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती,
-निर्मल सहोदरा है!
बांहों की वल्लरि से तन-तरू को
रोम-रोम कसती-सी!
औरों की आंखों से बचा-बचा-
दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियां-
-प्रकृति प्रणयिनी है!
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में
भय के वनांतर में उदासीन-
शांत देव-प्रतिमा है!
मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंत्स पर खिंची हुई
प्रकृति एक विद्युत की लीक है!
ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूं
तब कं- प्रकृति रमणीक है...

बेंदी
उगी गोरे भला पर बेंदी!
एक छोटे दारे में लालिमा इतनी बिथुरती,
बांध किसने दी।

नहा केसर के सरोवर में,
ज्यों गुलाबी चांद उग आया।
अनछुई-सी पांखुरी रक्ताभ पाटल की,
रक्तिमा जिसकी, शिराओं के
सिहरते वेग में,
झनकार बनकर खो गई।
भुनहरे के लहकते रवि की
विभा ज्यों फूट निकली,
चीरती-सी कोर हलके पीत बादल की,
रात केशों में सिमटकर सो गई।
अरुन इंदीवर खिला, ईंगूर पराग भरा
सुनहले रूप के जल में
अलक्तक की बूंद
झिलमिल : स्फटिक के तल में।

स्पर्श गीत
शब्द से मुझको छुओ फिर,
देह के ये स्पर्श दाहक हैं।
एक झूठी जिंदगी के बोल हैं,
उद्धोष हैं चल के,
ये असह,
ये बहुत ही अस्थिर,
-बहुत हलके-
महज बहुरूपिया हैं
जो रहा अवशेष-
उस विश्वास के भी क्रूर गाहक हैं।
इन्हें इनका रूप असली दो-
सत्य से मुझको छुओ फिर।
पूर दो गंगाजली की धार से,
प्राण की इस शुष्क वृंदा को-
पिपासित आलबाल :
मंजरी की गंध से नव अर्थ हों अभिषिक्त-
अर्थ से मुझको छुओ फिर।
सतह के ये स्पर्श उस तल तक नहीं जाते,
जहां मैं चाहता हूँ तुम छुओ मुझको।

ध्रुव तारा
एक लघु विश्वास का तारा
सदा उत्तर में उगा रहता
किसी भी प्रश्न के-
जो छोड जाती कूल पर आकाश के
तम-वाहिनी आलोक की धारा।
मार्गदर्शक-
भावना के हर बटोही का,
उलझ कर जो
नियति के, नागपाशी पंथ से हारा।
शून्य-पथ में थिरकते हर बिंदु को
देता चुनौती,
परिस्थितियों के संचल सप्तर्षियों के बीच
अब भी अडिग है वह-
आत्मबल संचित किए सारा।
एक लघु विश्वास का तारा।

घाटी की चिंता
सरिता जल में
पैर डालकर,
आंखें मूंदे, शीश झुकाए,
सोचे रही है कब से-
बादल ओढे घाटी।
कितने तीखे अनुतापों को,
आघातों को,
सहते-सहते,
जाने कैसे असह दर्द के बाद-
बन गई होगी पत्थर
इस रसमय धरती की माटी।

 

 

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