(रचनाकाल 1603-1640 ई.)
रसनिधि का मूल नाम पृथ्वीसिंह है। ये दतिया राज्य के रहने वाले जमींदार थे। रसनिधि का महत्वपूर्ण ग्रंथ है- 'रतन-हजारा। इसकी रचना केवल दोहों में हुई है, जिनमें बिहारी जैसी सूक्ष्म भाव-व्यंजना है। भाषा पर कहीं-कहीं फारसी का प्रभाव है। इनके काव्य में रसात्मकता अधिक है। इनका उक्ति-वैचित्र्य भी सराहनीय है।
दोहे
सरस रूप को भार पल, सहि न सकैं सुकुमार।
याही तैं ये पलक जनु, झुकि आवैं हर बार॥
घट बढ इनमैं कौन है, तुहीं सामरे ऐन।
तुम गिरि लै नख पै धरयौ, इन गिरिधर लै नैन॥
अरी नींद आवै चहै, जिहि दृग बसत सुजान।
देखी सुनी धरी कँ, दो असि एक मियान॥
पसु पच्छिन जानहीं, अपनी-अपनी पीर।
तब सुजान जानौं तुम्हें, जब जानौ पर पीर॥
अद्भुत गति या प्रेम की, लखौ सनेही आइ।
जुरै कँ, टूटै कँ, कँ गाँठ परि जाइ॥
अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस-भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय॥
चतुर चितेरे तुव सबी, लिखत न हिय ठहराय।
कलम छुवत कर ऑंगुरी, कटी कटाछन जाय॥
सुंदर जोबन रूप जो, बसुधा में न समाइ।
दृग तारन तिल बिच तिन्हैं, नेही धरत लुकाइ॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217