पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शांत हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँट कर बोली - अब गोद से उतर कर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गए हैं? रूपा ने बाप की गर्दन में हाथ डाल कर ढिठाई से कहा - न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो। होरी ने सोना को बनावटी रोष से देख कर कहा - तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया, सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता? सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया - सोना न हो तो मोहर कैसे बने, नथुनिया कहाँ से आएँ, कंठा कैसे बने? गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला - तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है, जैसे सूरज। सोना बोली - शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता। रूपा इस दलील से परास्त हो गई। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा। होरी को एक नई युक्ति सूझ गई। बोला - सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं। सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त हो कर बोली - तुम सब जने एक ओर हो गए, नहीं रुपिया को रुला कर छोड़ती। रूपा ने उँगली मटका कर कहा - ए राम, सोना चमार-ए राम, सोना चमार। इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछल कर यही रट लगाने लगी - रूपा राजा, सोना चमार - रूपा राजा, सोना चमार! ए लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट हो कर बोली - आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है। फिर पति से गर्म हो कर कहा - तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गए। खेत कहीं भागा जाता था! द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर ऊँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गए। जौ की रोटियाँ थीं, पर गेहूँ-जैसी सफेद और चिकनी। अरहर की दाल थी, जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!
|