गोबर को भी राय बदलनी पड़ी। बोला - माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है? कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो-कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं टिकना ही पड़ेगा। गोबर ने विनोद किया - लुगाई मान गई? 'न मानेगी तो क्या करेगी।' 'मुझे तो उसने ऐसी फटकार बताई कि मैं लजा गया।' 'वह खुद पछता रही है। चलो, जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-माई की गाली क्यों देती है। हमारी भी बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना न जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठ कर चली जाय, पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।' गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आए, जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गई थी। जरा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी। कोदई ने मुस्करा कर कहा - यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ? युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देख कर कहा - इतनी ही डाँट में डर गए? लुगाई आ जायगी, तब कहाँ भागोगे? गाँव समीप ही था। गाँव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँच कर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत ले कर आई और गोबर को पानी का एक छींटा मार कर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे।
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