धीरे-धीरे एक-एक करके मजदूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश हो कर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई गम नहीं। सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आ कर ऊँची आवाज से कहा - जिसको छ: आने रोज पर काम करना हो, वह मेरे साथ आए। सबको छ: आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़ कर सब-के-सब उनके साथ चलने को तैयार हो गए। चार सौ फटे हालों की एक विशाल सेना सज गई। आगे मिर्जा थे, कंधों पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लंबी कतार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिर्जा से पूछा - कौन काम करना है मालिक? मिर्जा ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गए? केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के छ: आना रोज दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पा कर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को संदेह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जा कर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाए, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्ली-डंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा! गोबर ने डरते-डरते कहा - मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ तो कुछ ले कर खा लूँ। मिर्जा ने झट छ: आने पैसे उसके हाथ में रख दिए और ललकार कर बोले - मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिंता मत करो। मिर्जा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी जमीन ले रखी थी। मजूरों ने जा कर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अंदर केवल एक छोटी-सी फूस की झोपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियाँ थीं, एक मेज। थोड़ी-सी किताबें मेज पर रखी हुई थीं। झोपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुंदर लगती थी। अहाते में एक तरफ आम और नींबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिर्जा ने सबको कतार में खड़ा करके पहले ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में संदेह न रहा।
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