वह उल्टे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे ला कर आँगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई ला कर रख दी और बोली - चलो, मैं आग जलाए देती हूँ। धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भर कर बोली - सब-का-सब उठा लाई कि घर में कुछ छोड़ा? कहीं भागा जाता था? आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में ले कर दुलारती हुई बोली - तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभी जी! पंद्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान मालिक है। झुनिया ने आ कर आँचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रूकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगा। पुनिया बोली - महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी? धनिया ने कहा - बिरादरी में सुरखरू कैसे होते? 'भाभी, बुरा न मानो तो, एक बात कहूँ?' 'कह, बुरा क्यों मानूँगी?' 'न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?' 'कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो।' 'तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था!' 'तब क्या करती? वह डूब मरती थी।' 'मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।' 'यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू ले कर दौड़ती!' 'इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।' 'होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा, भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिए फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े। इस सत्यानासी गाय ने आ कर घर चौपट कर दिया।'
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