मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-18

पेज-182

गोविंदी ने हसरत भरे स्वर में कहा - नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गई-बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है? मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँ, वहाँ वह सफल है। मैं अपनों को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?

मेहता ने मुँह बना कर कहा - शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसीलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शांत करता है?

गोविंदी ने विनोद की शरण ले कर कहा - कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा-मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज और नशीली हो, उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँ, आप भी शराब के उपासक हैं?

गोविंदी निराशा की उस दशा में पहुँच गई थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी संदेह होने लगता है, लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अंतिम भाग पर ही चिमट कर रह गया। अपने मद-सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुन कर भी न हुआ था। तर्कों का उनके पास जवाब था और मुँह-तोड़, लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताए कि कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने खुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा।

लज्जित हो कर बोले - हाँ देवी जी, मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी जरूरत बतला कर और उसके विचारोतेजक गुणों के प्रमाण दे कर गुनाह का उज्र न करूँगा, जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।

गोविंदी ने सन्नाटे में आ कर कहा - यह आपने क्या किया मेहता जी! मैं ईश्वर से कहती हूँ, मेरा यह आशय न था, मुझे इसका दु:ख है।

 

 

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