मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-18

पेज-185

मेहता ने दर्द-भरे स्वर में, जिसका एक-एक अक्षर उनके अंत:करण से निकल रहा था, कहा - नहीं देवी जी, वह घर आपका है, और सदैव रहेगा। उस घर की आपने सृष्टि की है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है। और प्राण जैसे देह का संचालन करता है, उसी तरह आपने उसका संचालन किया है। प्राण निकल जाय, तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान गौरव का पद है देवी जी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवा कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकती, उसी तरह प्राण का भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूँ? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा कि.......

गोविंदी ने अधीर हो कर कहा - लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँ, नारी भी तो हूँ?

मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा - हाँ, हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता है, और इसके उपरांत वह जो कुछ है, वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा - जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं, मगर यह उन्माद शांत होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आएगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।

गोविंदी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़ कर कार का द्वार खोल दिया। गोविंदी अंदर जा बैठी। कार चली, मगर दोनों मौन थे।

गोविंदी जब अपने द्वार पर पहुँच कर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा, उसकी आँखें सजल हैं।

बच्चे घर में से निकल आए और अम्माँ-अम्माँ कहते हुए माता से लिपट गए। गोविंदी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी।

उसने मेहता से कहा - इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद। और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूँद उसके कपोल पर आ गिरी थी।

मेहता की आँखें भी सजल हो गईं - इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है!

 

 

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