तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहा कर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शेद आ कर द्वार पर खड़े हो गए। गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जा कर पूछा - क्या हुक्म है सरकार? मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा - तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है। गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जा जी को रुपए दिए थे, पर अब तक वसूल न सका था। तकाजा करते डरता था और मिर्जा जी रुपए ले कर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आए, उधर गायब। यह तो न कह सका, मैं रुपए न दूँगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं, शराब की निंदा करने लगा - आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है? मिर्जा जी ने कोठरी के अंदर आ कर खाट पर बैठते हुए कहा - तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूँ। मैं इसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। तुम अपने रूपयों के लिए न डरो। मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूँगा। गोबर अविचलित रहा - मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता? 'दो रुपए भी नहीं दे सकते?' 'इस समय तो नहीं हैं।' मेरी अंगूठी गिरो रख लो।' गोबर का मन ललचा उठा, मगर बात कैसे बदले? बोला - यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे देता, अंगूठी की कौन बात थी। मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भर कर कहा - मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी जिद पड़ गई है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।
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