दातादीन बिगड़ उठे - पैसे देते हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम लेना है, तो घर जा कर लो। धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई - तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है? धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा - जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए। दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं - जान पड़ता है, अभी मिजाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो। धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी - तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती। दातादीन ने पैने स्वर में कहा - अगर यही हाल रहा तो भीख भी माँगोगी। धनिया के पास जवाब तैयार था, पर सोना उसे खींच कर तलैया की ओर ले गई, नहीं बात बढ़ जाती, लेकिन आवाज की पहुँच के बाहर जा कर दिल की जलन निकाली - भीख माँगो तुम, जो भिखमंगों की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वही चार पैसे पाएँगे। सोना ने उसका तिरस्कार किया - अम्माँ जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखतीं, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो। होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँड़ासा उठा-उठा कर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गई थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बन कर उसे यंत्र की-सी अंध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यंत्र की गति से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धार निकल रही थी, मुँह से फिचकुर छूट रहा था, और सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।
|