मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-20

पेज-206

जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था। भोला ने एकांत देख कर कहा - और भैया, अब इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध ले कर जाता है। सानी-पानी, खोलना-बाँधना सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज लड़ाई-झगड़ा। किस-किसके पाँव सहलाऊँ? खाँसी आती है, रात को उठा नहीं जाता, पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गई है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।

गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा - तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो, नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का जिम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दुकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।

जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्बत पी कर कहा - तुम तो खाली साँझ-सबेरे चाय की दुकान पर बैठ जाओ काका, तो एक रूपया कहीं नहीं गया है।

भोला ने एक मिनट के बाद संकोच-भरे भाव से कहा - क्रोध में बेटा, आदमी अंधा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोई खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।

'मैंने तो एक नई गोई ठीक कर ली है काका!'

'नहीं-नहीं, नई गोई ले कर क्या करोगे? इसे लेते जाओ।'

'तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा।'

'रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे खुस होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है, और आराम से है। और मैं उसके खून का प्यासा बन गया था।'

संध्या के समय गोबर यहाँ से चला, तो गोई उसके साथ थी और दही की दो हाड़ियाँ लिए जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।

 

 

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