मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-24

पेज-249

उसी साँझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया होती है, शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सूद पर रुपए दे दे। मगर दुलारी अपना ही रोना ले बैठी। गाँव में ऐसा कोई घर न था, जिस पर उसके कुछ रुपए न आते हों, यहाँ तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपए आते थे, लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहाँ से रुपए लाए?

होरी ने गिड़गिड़ा कर कहा - भाभी, बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपए न दोगी, मेरे गले की फाँसी खोल दोगी, झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दाँत लगाए हुए हैं। मैं सोचता हूँ, बाप-दादा की यही तो निसानी है, यह निकल गई, तो जाऊँगा कहाँ? एक सपूत वह होता है कि घर की संपत बढ़ाता है, मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाड़ू फेर दूँ?

दुलारी ने कसम खाई - होरी, मैं ठाकुरजी के चरन छू कर कहती हूँ कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लिया, वह देता नहीं, तो मैं क्या करूँ? तुम कोई गैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की है, लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ? तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपए लिए। उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं, उसकी घरवाली से माँगो तो लड़ने के लिए तैयार! सोभा भी देखने में बड़ा सीधा-सादा है, लेकिन पैसा देना नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहीं, दें कहाँ से! सबकी दशा देखती हूँ, इसी मारे सबर कर जाती हूँ। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं, और क्या? खेती-बारी बेचने की मैं सलाह न दूँगी। कुछ नहीं है, मरजाद तो है।

फिर कनफुसकियों में बोली - पटेसरी लाला का लौंडा तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गए, गाँव का भाई-चारा क्या समझें? लड़के गाँव में भी हैं, मगर उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है, कुछ डर है। ये सब तो छूटे साँड़ हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आई थी, मैंने इन सबों के ढंग देख कर उसके ससुर को बुला कर विदा कर दिया। कोई कहाँ तक पहरा दे।

होरी को मुस्कराते देख कर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा - हँसोगे होरी, तो मैं भी कुछ कह दूँगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थे? दिन में पचीसों बार किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थे, मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।

होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा - यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी! मैं बिना कुछ रस पाए थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में आती है।

'चल झूठे।'

'आँखों से न ताकती रही हो, लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था, बल्कि बुलाता था।'

अच्छा रहने दो, बड़े आए अंतरजामी बनके। तुम्हें बार-बार मँड़राते देखके मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम कोई ऐसे बाँके जवान न थे।'

हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बंद हो गया। हुसेनी नमक ले कर चला गया, तो दुलारी ने कहा - गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते? देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाए।

होरी निराश मन से बोला - वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था, लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊँ, तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।

दुलारी ने कटाक्ष करके कहा - तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गए।

'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता?'

'मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच।'

'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँ, इन दामों महँगा नहीं हूँ।'

'तब धनिया से तो न बोलोगे?'

'नहीं, कहो कसम खाऊँ।'

'और जो बोले?'

'तो मेरी जीभ काट लेना।'

'अच्छा तो जाओ, बर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूँगी।'

होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिए। भावावेश से मुँह बंद हो गया।

 

 

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