मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-29

पेज-293

होरी ने कहा - तुम्हीं जा कर क्यों नहीं दे देते?

मातादीन ने दीन भाव से कहा - मुझे उसके पास मत भेजो होरी महतो! कौन-सा मुँह ले कर जाऊँ? डर भी लग रहा है कि मुझे देख कर कहीं फटकार न सुनाने लगे। तुम मुझ पर इतनी दया करो। अभी मुझसे चला नहीं जाता, लेकिन इसी रुपए के लिए एक जजमान के पास कोस-भर दौड़ा गया था। अपनी करनी का फल बहुत भोग चुका। इस बम्हनई का बोझ अब नहीं उठाए उठता। लुक-छिप कर चाहे जितने कुकरम करो, कोई नहीं बोलता। परतच्छ कुछ नहीं कर सकते, नहीं कुल में कलंक लग जायगा। तुम उसे समझा देना दादा, कि मेरा अपराध क्षमा कर दे। यह धरम का बंधन बड़ा कड़ा होता है। जिस समाज में जनमे और पले, उसकी मरजादा का पालन तो करना ही पड़ता है। और किसी जाति का धरम बिगड़ जाय, उसे कोई विशेष हानि नहीं होती, ब्राह्मन का धरम बिगड़ जाय, तो वह कहीं का नहीं रहता। उसका धरम ही उसके पूरवजों की कमाई है। उसी की वह रोटी खाता है। इस परासचित के पीछे हमारे तीन सौ बिगड़ गए। तो जब बेधरम हो कर ही रहना है, तो फिर जो कुछ करना है, परतच्छ करूँगा। समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है, मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है।

संध्या समय जब होरी ने सिलिया को डरते-डरते रुपए दिए, तो वह जैसे अपनी तपस्या का वरदान पा गई। दु:ख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। किसे यह खुशखबरी सुनाए? धनिया से वह अपने दिल की बातें नहीं कह सकती। गाँव में और कोई प्राणी नहीं, जिससे उसकी घनिष्ठता हो। उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। सोना ही उसकी सहेली थी। सिलिया उससे मिलने के लिए आतुर हो गई। रात-भर कैसे सब्र करे? मन में एक आँधी-सी उठ रही थी। अब वह अनाथ नहीं है। मातादीन ने उसकी बाँह फिर पकड़ ली। जीवन-पथ में उसके सामने अब अंधेरी, विकराल मुख वाली खाई नहीं है, लहलहाता हुआ हरा-भरा मैदान है, जिसमें झरने गा रहे हैं और हिरन कुलेलें कर रहे हैं। उसका रूठा हुआ स्नेह आज उन्मत्त हो गया है। मातादीन को उसने मन में कितना पानी पी-पी कर कोसा था। अब वह उनसे क्षमादान माँगेगी। उससे सचमुच बड़ी भूल हुई कि उसने उनको सारे गाँव के सामने अपमानित किया। वह तो चमारिन है जाति की हेठी, उसका क्या बिगड़ा। आज दस-बीस लगा कर बिरादरी को रोटी दे दे, फिर बिरादरी में ले ली जायगी। उस बेचारे का तो सदा के लिए धरम नास हो गया। वह मरजाद अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। वह क्रोध में कितनी अंधी हो गई थी कि सबसे उनके प्रेम का ढिंढोरा पीटती फिरी। उनका तो धरम भिरष्ट हो गया था, उन्हें तो क्रोध था ही, उसके सिर पर क्यों भूत सवार हो गया? वह अपने ही घर चली जाती, तो कौन बुराई हो जाती? घर में उसे कोई बाँध तो न लेता। देस मातादीन की पूजा इसीलिए तो करता है कि वह नेम-धरम से रहते हैं। वही धरम नष्ट हो गया, तो वह क्यों न उसके खून के प्यासे हो जाते?

 

 

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