उसने लपक कर सामने आँगन में से गँड़ासा उठा लिया और उसे हाथ में लिए, फिर बोली - यह मत समझना कि मैं खाली धमकी दे रही हूँ। क्रोध में मैं क्या कर बैठूँ, नहीं कह सकती। साफ-साफ बता दो। सिलिया काँप उठी। एक-एक शब्द उसके मुँह से निकल पड़ा, मानो ग्रामोगोन में भरी हुई आवाज हो। वह एक शब्द भी न छिपा सकी, सोना के चेहरे पर भीषण संकल्प खेल रहा था, मानो खून सवार हो। सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभने वाली आँखों से देखा और मानो कटार का आघात करती हुई बोली - ठीक-ठीक कहती हो? 'बिलकुल ठीक। अपने बच्चे की कसम।' 'कुछ छिपाया तो नहीं?' 'अगर मैंने रत्ती-भर छिपाया हो तो आँखें फूट जाएँ।' 'तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारी? उसे दाँत क्यों नहीं काट लिया? उसका खून क्यों नहीं पी लिया, चिल्लाई क्यों नहीं?' सिल्लो क्या जवाब दे। सोना ने उन्मादिनी की भाँति अंगारे की-सी आँखें निकाल कर कहा - बोलती क्यों नहीं? क्यों तूने उसकी नाक दाँतों से नहीं काट ली? क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया? तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई हो, निरी बेसवा! अगर यही करना था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है, क्यों किसी को ले कर बैठ नहीं जाती, क्यों अपने घर नहीं चली गई? यही तो तेरे घर वाले चाहते थे। तू उपले और घास ले कर बाजार जाती, वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता। फिर क्यों उस ब्राह्मन का अपमान कराया? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवंती बनी बैठो हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती! क्यों नदी-तालाब में डूब नहीं मरती? क्यों दूसरों के जीवन में बिस घोलती है? आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इस तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुँह में कालिख लगा कर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा। सिल्लो धीरे से उठी और सँभल कर खड़ी हुई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गई है। एक क्षण साहस बटोरती रही, किंतु अपने सफाई में कुछ सूझ न पड़ा। आँखों के सामने अँधेरा था, सिर में चक्कर, कंठ सूख रहा था, और सारी देह सुन्न हो गई थी, मानो रोम-छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक-एक पग इस तरह रखती हुई, मानो सामने गड्ढा है, तब बाहर आई और नदी की ओर चली। द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला - इस वक्त कहाँ जाती हो सिल्लो? सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा। वही रुपहली चाँदनी अब भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चाँद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त-सी स्वप्न-छाया की भाँति नदी में चली जा रही थी।
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