रुद्रपाल ने जवाब दिया - मुझे स्वीकार नहीं। रायसाहब को अपने जीवन में न कभी इतनी निराशा हुई थी, न इतना क्रोध आया था, पूछा - कोई वजह? 'समय आने पर मालूम हो जायगा।' 'मैं अभी जानना चाहता हूँ।' 'मैं नहीं बतलाना चाहता।' 'तुम्हें मेरा हुक्म मानना पड़ेगा।' जिस बात को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती, उसे मैं आपके हुक्म से नहीं मान सकता।' रायसाहब ने बड़ी नम्रता से समझाया - बेटा, तुम आदर्शवाद के पीछे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह संबंध समाज में तुम्हारा स्थान कितना ऊँचा कर देगा, कुछ तुमने सोचा है? इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी मुझे मिलती, तो मैं अपने भाग्य को सराहता, यह तो राजा सूर्यप्रताप की कन्या है, जो हमारे सिरमौर हैं। मैं उसे रोज देखता हूँ। तुमने भी देखा होगा। रूप, गुण, शील, स्वभाव में ऐसी युवती मैंने आज तक नहीं देखी। मैं तो चार दिन का और मेहमान हूँ। तुम्हारे सामने जीवन पड़ा है। मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम जानते हो, विवाह के विषय में मेरे विचार कितने उदार हैं, लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है कि अगर तुम्हें गलती करते देखूँ, तो चेतावनी दे दूँ। रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया - मैं इस विषय में बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ। अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। रायसाहब को लड़के की जड़ता पर फिर क्रोध आ गया। गरज कर बोले - मालूम होता है, तुम्हारा सिर फिर गया है। आ कर मुझसे मिलो। विलंब न करना। मैं राजा साहब को जबान दे चुका हूँ।
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