दोनों सुंदरियाँ मुस्कराईं। मेहता कट गए। मिर्जा ने दोनों औरतों को वहाँ से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले - मैं तो खुद आपके पास आने वाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूँ, वह आपकी मदद के बगैर पूरा न होगा। आप सिर्फ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइए - हाँ मिर्जा, बढ़े चल पत्ते! मेहता ने हँस कर कहा - आप जिस काम में हाथ लगाएँगे, उसमें हम जैसे किताबी कीड़ों की जरूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज्यादा है। दुनिया भी आपने खूब देखी है और छोटे-छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में है, वह मुझमें होती, तो मैंने खुदा जाने क्या किया होता। मिर्जा साहब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नई स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के बाजार में वही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिए जाएँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों। मेहता ने अन्य विचारवान सज्जनों की भाँति इस प्रश्न पर काफी विचार किया था और उनका खयाल था कि मुख्यत: मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गई। दोनों अपने-अपने पक्ष पर अड़ गए। मेहता ने मुट्ठी बाँध कर हवा में पटकते हुए कहा - आपने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से गौर नहीं किया। रोजी के लिए और बहुत से जरिए हैं। मगर ऐश की भूख रोटियों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे-से-अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय, इस तरह की मंडली से कोई फायदा न होगा। मिर्जा ने मूँछें खड़ी की - और मैं कहता हूँ कि यह महज रोजी का सवाल हैं। हाँ, यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक-सा नहीं है। मजदूर के लिए वह महज आटे-दाल और एक फूस की झोपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बँगले और खिदमतगारों का सवाल है। आदमी महज रोटी नहीं चाहता और भी बहुत-सी चीजें चाहता है। अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह-तरह की सूरतों में आता है तो उनका क्या कसूर है?
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