मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-35

पेज-347

जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुल कर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भाँति उनके सामने है। उसमें उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता। उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गई हैं। द्वार पर मनों कूड़ा जमा है, दुर्गंध उड़ रही है, मगर उनकी नाक में न गंध है, न आँखों में ज्योति। सरेशाम से द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैं, मगर किसी को गम नहीं। सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ जाता है, वह खा लेते हैं, उसी तरह जैसे इंजिन कोयला खा लेता है। उनके बैल चूनी-चोकर के बगैर नाँद में मुँह नहीं डालते, मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए। स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है। उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो, मुट्ठी-भर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो। पतन की वह इंतहा है, जब आदमी शर्म और इज्जत को भी भूल जाता है।

लड़कपन से गोबर ने गाँवों की यही दशा देखी थी और उसका आदी हो चुका था, पर आज चार साल के बाद उसने जैसे एक नई दुनिया देखी। भले आदमियों के साथ रहने से उसकी बुद्धि कुछ जाग उठी है, उसने राजनैतिक जलसों में पीछे खड़े हो कर भाषण सुने हैं और उनसे अंग-अंग में बिंधा है। उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य खुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि और साहस से इन आगतों पर विजय पाना होगा। कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आएगी। और उसमें गहरी संवेदना सजग हो उठी है। अब उसमें वह पहले की उद्दंडता और गरूर नहीं है। वह नम्र और उद्योगशील हो गया है। जिस दशा में पड़े हुए हो, उसे स्वार्थ और लोभ के वश हो कर और क्यों बिगाड़ते हो? दु:ख ने तुम्हें एक सूत्र में बाँध दिया है। बंधुत्व के इस दैवी बंधन को क्यों अपने तुच्छ स्वार्थों से तोड़े डालते हो? उस बंधन को एकता का बंधन बना लो। इस तरह के भावों ने उसकी मानवता को पंख-से लगा दिए हैं। संसार का ऊँच-नीच देख लेने के बाद निष्कपट मनुष्यों में जो उदारता आ जाती है, वह अब मानो आकाश में उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रही है। होरी को अब वह कोई काम करते देखता है, तो उसे हटा कर खुद करने लगता है, जैसे पिछले दुर्व्यवहार का प्रायश्चित करना चाहता हो। कहता है, दादा तुम अब कोई चिंता मत करो, सारा भार मुझ पर छोड़ दो, मैं अब हर महीने खर्च भेजूँगा। इतने दिन तो मरते-खपते रहे, कुछ दिन तो आराम कर लो। मुझे धिक्कार है कि मेरे रहते तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़े। और होरी के रोम-रोम से बेटे के लिए आशीर्वाद निकल जाता है। उसे अपनी जीर्ण देह में दैवी स्फुर्ति का अनुभव होता है। वह इस समय अपने कर्ज का ब्योरा कह कर उसकी उठती जवानी पर चिंता की बिजली क्यों गिराए? वह आराम से खाए-पीए, जिंदगी का सुख उठाए। मरने-खपने के लिए वह तैयार है। यही उसका जीवन है। राम-राम जप कर वह जी भी तो नहीं सकता। उसे तो फावड़ा और कुदाल चाहिए। राम-नाम की माला गेर कर उसका चित्त न शांत होगा।

गोबर ने कहा - कहो तो मैं सबसे किस्त बँधवा लूँ और हर महीने-महीने देता जाऊँ। सब मिल कर कितना होगा?

होरी ने सिर हिला कर कहा - नहीं बेटा, तुम काहे को तकलीफ उठाओगे। तुम्हीं को कौन बहुत मिलते हैं! मैं सब देख लूँगा! जमाना इसी तरह थोड़े ही रहेगा। रूपा चली जाती है। अब कर्ज ही चुकाना तो है। तुम कोई चिंता मत करना। खाने-पीने का संजम रखना। अभी देह बना लोगे, तो सदा आराम से रहोगे। मेरी कौन; मुझे तो मरने-खपने की आदत पड़ गई है। अभी मैं तुम्हें खेती में नहीं जोतना चाहता बेटा? मालिक अच्छा मिल गया है। उसकी कुछ दिन सेवा कर लोगे, तो आदमी बन जाओगे! वह तो यहाँ आ चुकी हैं। साक्षात देवी हैं।

'ब्याह के दिन फिर आने को कहा है।'

'हमारे सिर-आँखों पर आएँ। ऐसे भले आदमियों के साथ रहने से चाहे पैसे कम भी मिलें, लेकिन ज्ञान बढ़ता है और आँखें खुलती हैं।'

उसी वक्त पंडित दातादीन ने होरी को इशारे से बुलाया और दूर ले जा कर कमर से सौ-सौ के दो नोट निकालते हुए बोले - तुमने मेरी सलाह मान ली, बड़ा अच्छा किया। दोनों काम बन गए। कन्या से भी उरिन हो गए और बाप-दादों की निशानी भी बच गई। मुझसे जो कुछ हो सका, मैंने तुम्हारे लिए कर दिया, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।

होरी ने रुपए लिए तो उसका हाथ काँप रहा था, उसका सिर ऊपर न उठ सका। मुँह से एक शब्द न निकला, जैसे अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है। आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है कि मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो आता है, उसके मुँह पर थूक देता है। वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, भाइयो, मैं दया का पात्र हूँ। मैंने नहीं जाना, जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है, इस देह को चीर कर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है?कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ? उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किए, कभी तू छाँह में बैठा - उस पर यह अपमान! और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध हो कर स्थूल और अंधा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।

दातादीन ने कहा - तो मैं जाता हूँ। न हो, तुम इसी बखत नोखेराम के पास चले जाओ।

होरी दीनता से बोला - चला जाऊँगा महराज! मगर मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है।

 

 

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