मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-5

पेज-43

गोबर के लिए यह एक नई दुनिया की बातें थीं। तन्मय हो कर सुन रहा था। कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रूक जाते, फिर सचेत हो कर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातें और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाय, तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरे?

झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रख कर जीभ दाँत से काटती हुई बोली - अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ।

यह कह कर वह लौट पड़ी।

गोबर ने आग्रह करके कहा - एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें।

झुनिया ने लज्जा से आँखें चुरा कर कहा - तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गई। अच्छा बताओ, अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना, मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।

'और जो न मिली?'

'तो लौट जाना।'

'तो फिर मैं न आऊँगा।'

'आना पड़ेगा, नहीं कहे देती हूँ।'

'तुम भी बचन दो कि मिलोगी?'

'मैं बचन नहीं देती।'

'तो मैं भी नहीं आता।'

'मेरी बला से!'

झुनिया अँगूठा दिखा कर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक-दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आएगा, कैसे न आएगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी?

जब वह अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।

 

 

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