संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा - मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा - अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूँ तो अपने को भाग्यवान समझूँ। ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले - इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना जिक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाए। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोद कर फेंक देने का जिम्मा लिया है। मिस मालती ने और उकसाया - मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी खुशामद की, अपने कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगाएँगे। ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले - यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ। 'मैं इसे दंभ कहती हूँ।' 'आपकी इच्छा।' 'धन की आपको परवा नहीं है?' 'सिद्धांतों का खून करके नहीं।' 'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।' ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बगलें झाँकते देख कर रायसाहब ने उनकी हिमायत की - तो आखिर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ, तो पत्र कैसे चले? मिस मालती ने दया करना न सीखा था। 'पत्र नहीं चलता तो बंद कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मजबूर हैं, तो सिद्धांत का ढोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धांतवादी पत्रों को देख कर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो, सिद्धांतवादी नहीं है।' मेहता खिल उठा। थोड़ी देर पहले उन्होंने खुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा। 'यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।' मिस मालती प्रसन्नमुख से बोली - तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फिलासफर होने का दावा कर सकती हूँ। खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले - आपका एक-एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है। मालती ने उनकी लगाम खींची - अच्छा, आपको भी फिलासफी में दखल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपने फिलासफी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कंपनियों के डाइरेक्टर न होते। रायसाहब ने खन्ना को सँभाला - तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिए? 'जी हाँ' फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फिलासफर कैसा?' 'इस लिहाज से तो शायद मिस्टर मेहता भी फिलासफर न ठहरें।'
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