युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आ कर खड़ी हो गई और मालती को आँखें बंद किए पड़ी देख कर बोली - बाई को क्या हो गया है? 'मेहता बोले- सिर में बड़ा दर्द है। 'पूरे सिर में है कि आधे में?' 'आधे में बतलाती हैं।' 'दाईं ओर है, कि बाईं ओर?' 'बाईं ओर।' 'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिस कर लगाते ही अच्छा हो जायगा।' 'तुम इस धूप में कहाँ जाओगी?' युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जा कर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा - इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है। मालती ने आँखें खोल कर देखा - कहाँ गई वह कलूटी। गजब की काली है, जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दो, रायसाहब से कह आए, कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा। 'कोई दवा लेने गई है। कहती है, उससे आधा-सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।' इनकी दवाएँ इन्हीं को फायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।' मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था। 'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।' 'उसकी खूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।' 'तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जा कर कार लाऊँ, यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता।' 'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?' 'वह तो दवा लेने गई है, फिर भोजन पकाएगी।' 'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।' मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़ कर कहा - इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बंधुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ, केवल भाषण दे सकता हूँ, वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार करती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो। मालती ने उपहास भाव से कहा - बस-बस, वह देवी है। मैं मान गई। उसके वक्ष में उभार है, नितंबों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए। मेहता तिलमिला उठे। तुरंत उठे और कपड़े पहने, जो सूख गए थे। बंदूक उठाई और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी - तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़ कर। 'तब कौन जायगा?' 'वही तुम्हारी देवी।' मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ। वह दौड़ती-हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आ कर मेहता को कहीं जाने को तैयार देख कर बोली - मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिस कर लगाती हूँ, लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो? माँस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना। उसने निःसंकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गँवारिन के चरणों को चूम लें। मालती ने कहा - अपने दवाई रहने दे। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लाएँ। दौड़ी हुई जा। युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाई, उसका यह अनादर! इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही जरा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता। उसने बूटी जमीन पर रख कर पूछा - तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाई जी। कहो तो रोटियाँ सेंक कर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटर वाले को बुला लाऊँगी।
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