मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

तीन

पेज-14

- क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो! दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूं, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया। मगर मैं तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूं। तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद  बेदाग बचना चहाते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूं, जब वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही कया है, वे खुद  ही जितना उचित समेझेंगे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया, तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन है, इसका इलजाम भी तुम्हारे सिर है। मै। अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊंगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा। ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता। बोला आब भी वहां शादी करते हो या नहीं?
भाला- जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ की, बलैया ले लें!
रंगीली- हो बड़े हयादार, ब भी नहीं शरमाते। ईमान से कहा, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं?
भाल-अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं जो मर्दों को पहचानती हैं। अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्व की बाते कही है, उनको मानना पड़ा।
रंगीली- जरा आईने में अपनी सूरत तो देख आओं, तुम्हें मेरी कमस है। जरा देख लो, कितना झेंपे हुए हो।
भाल- सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूं?
रंगीली- इतना ही, जितना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है।
भाल- खैर, मैं झेंपा ही सही, पर शादी वहां न होगी।
रंगीली- मेरी बला से, जहां चाहो करो। क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते?
भाल- अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।
रंगीली- जरा भी इशारा न करना!
भाल- अजी, मैं उसकी तरफ ताकूंगा भी नहीं।
संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुंचा। ऐसे सुन्दर, सुडौल, बलिष्ठ युवक कालेजों में बहुत कम देखने में आते हैं। बिल्कुल मां को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती के-से ओंठ, वही चौड़ा, माथा, वही बड़ी-बड़ी आंखें, डील-डौल बाप का-सा था। ऊंचा कोट, ब्रीचेज, टाई, बूट, हैट उस पर खूब ल रहे थे। हाथ में एक हाकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आंखों में आमत्मगौरव।
रंगीली ने कहा-आज बड़ी देर लगाई तुमने? यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है। तुम्हारी सास ने लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है। तुम्हें वहां शादी करना मंजूर है या नहीं?
भुवन- शादी करनी तो चाहिए अम्मां, पर मैं करूंगा नहीं।
रंगीली- क्यों?
भुवन- कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रूपये मिलें। और न सही एक लाख का तो डौल हो। वहां अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा?
रंगीली- तुम्हें ऐसी बातें मुंह से निकालते शर्म नहीं आती?
भुवन- इसमें शर्म की कौन-सी बात है? रूपये किसे काटते हैं? लाख रूपये तो लाख जन्म में भी न जमा कर पाऊंगा। इस साल पास भी हो गया, तो कम-से-कम पांच साल तक रूपये से सूरत नजर न आयेगी। फिर सौ-दो-सौ रूपये महीने कमाने लगूंगा। पांच-छ: तक पहुंचते-पहुंचते उम्र के तीन भाग बीत जायेंगे। रूपये जमा करने की नौबत ही न आयेगी। दुनिया का कुछ मजा न उठा सकूंग। किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती, तो चैन से कटती। मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख हो या फिर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले, जिसके एक ही लड़की हो।
रंगीली- चाहे औरत कैसे ही मिले।
भूवन- धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे वह गालियां भी सुनाये, तो भी चूं न करूं। दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है?
बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा-हमें उन लोगों के साथ सहानुभति है और दु:खी है कि ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम लेकर ही कोई निश्चय करना चहिए। हम कितने ही फटे-हालों जायें, फिर भी अच्छी-खासी बारात हो जायेगी। वहां भोजन का भी ठिकाना नहीं। सिवा इसके कि लोग हंसें और कोई नतीजा न निकलेगा।
रंगीली- तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो।
भुवन-जो गरीब है, उसे गरीबों ही के यहां सम्बन्ध करना चहिए। अपनी हैसियत से बढ़कर.....।
रंगीली- चुप भी रह, आया है वहां से हैसियत लेकर। तुम कहां के धन्ना-सेठ हो? कोई आदमी द्वारा पर आ जाये, तो एक लोटे पानी को तरस जाये। बड़े हैसियतवाले बने हो!
यह कहकर रंगीली वहां से उठकर रसोई का प्रबन्ध करने चली गयी।
भुवनमोहन मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया और बाबू साहब मूछों पर ताव देते हुए बाहर आये कि मोटेराम को अन्तिम निश्चय सुना दें। पर उनका कहीं पता न था।
मोटेरामजी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई, तो उनसे बैठा न गया। सोचा यहां बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उद्योग करना चाहिए। भाग्य के भरोसे यहां अड़ी किये बैठे रहें, तो भूखों मर जायेंगे। यहां तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठायी और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ चले। बाजार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुंचे। देखा, तो बुड्ढा एक हलवाई की दूकान पर बैठा चिलम पी रहा था। उसे देखते ही आपने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा-अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा? सरकार वहां बैठे बिगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या ताड़ी पीने लगा। मैंने कहा-‘सरकार यह बात नहीं, बुढ्डा आदमी है, आते ही आते तो आयेगा।’ बड़े विचित्र जीव हैं। न जाने इनके यहां कैसे नौकर टिकते हैं।
कहार-मुझे छोड़कर आज तक दूसरा कोई टिका नहीं, और न टिकेगा। साल-भर से तलब नहीं मिली। किसी को तलब नहीं देते। जहां किसी ने तलब मांगी और लगे डांटने। बेचारा नौकरी छोड़कर भाग जाता है। वे दोनों आदमी, जो पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं। सरकार से दो अर्दली मिले हैं न! इसी से पड़े हुए हैं। मैं भी सोचता हूं, जैसा तेरा ताना-बाना वैसे मेरी भरनी! इस साल कट गये हैं, साल दो साल और इसी तरह कट जायेंगे।
मोटेराम- तो तुम्हीं अकेले हो? नाम तो कई कहारों का लेते है।
कहार- वह सब इन दो-तीन महीनों के अन्दर आये और छोड़-छोड़ कर चले गये। यह अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं। कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूं?
मोटेराम- अजी, बहुत नौकरी है। कहार तो आजकल ढूंढे नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है। यहां कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया-सरकार, बुढ्डा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही से खा लूंगा। इसकी आप चिन्ता न करें। बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं तौल दो एक सेर भर। आ जाऊं वहीं ऊपर न?

 

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