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मुंशी प्रेमचंद - निर्मला
निर्मला
छह
पेज- 20
उस दिन अपने प्रगाढ़ प्रणय का सबल प्रमाण देने के बाद मुंशी तोताराम को आशा हुई थी कि निर्मला के मर्म-स्थल पर मेरा सिक्का जम जायेगा, लेकिन उनकी यह आशा लेशमात्र भी पूरी न हुई बल्कि पहले तो वह कभी-कभी उनसे हंसकर बोला भी करती थी, अब बच्चों ही के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। जब घर आते, बच्चों को उसके पास बैठे पाते। कभी देखते कि उन्हें ला रही है, कभी कपड़े पहना रही है, कभी कोई खेल, खेला रही है और कभी कोई कहानी कह रही है। निर्मला का तृषित हृदय प्रणय की ओर से निराश होकर इस अवलम्ब ही को गनीमत समझने लगा, बच्चों के साथ हंसने-बोलने में उसकी मातृ-कल्पना तृप्त होती थीं। पति के साथ हंसने-बोलने में उसे जो संकोच, जो अरुचि तथा जो अनिच्छा होती थी, यहां तक कि वह उठकर भाग जाना चाहती, उसके बदले बालकों के सच्चे, सरल स्नेह से चित्त प्रसन्न हो जाता था। पहले मंसाराम उसके पास आते हुए झिझकता था, लेकिन मानसिक विकास में पांच साल छोटा। हॉकी और फुटबाल ही उसका संसार, उसकी कल्पनाओं का मुक्त-क्षेत्र तथा उसकी कामनाओं का हरा-भरा बाग था। इकहरे बदन का छरहरा, सुन्दर, हंसमुख, लज्जशील बालक था, जिसका घर से केवल भोजन का नाता था, बाकी सारे दिन न जाने कहां घूमा करता। निर्मला उसके मुंह से खेल की बातें सुनकर थोड़ी देर के लिए अपनी चिन्ताओं को भूल जाती और चाहती थी एक बार फिर वही दिन आ जाते, जब वह गुड़िया खेलती और उसके ब्याह रचाया करती थी और जिसे अभी थोड़े आह, बहुत ही थोड़े दिन गुजरे थे।
मुंशी तोताराम अन्य एकान्त-सेवी मनुष्यों की भांति विषयी जीव थे। कुछ दिनों तो वह निर्मला को सैर-तमाशे दिखाते रहे, लेकिन जब देखा कि इसका कुछ फल नहीं होता, तो फिर एकान्त-सेवन करने लगे। दिन-भर के कठिन मासिक परिश्रम के बाद उनका चित्त आमोद-प्रमोद के लिए लालयित हो जाता, लेकिन जब अपनी विनोद-वाटिका में प्रवेश करते और उसके फूलों को मुरझाया, पौधों को सूखा और क्यारियों से धूल उड़ती हुई देखते, तो उनका जी चाहता-क्यों न इस वाटिका को उजाड़ दूं? निर्मला उनसे क्यों विरक्त रहती है, इसका रहस्य उनकी समझ में न आता था। दम्पति शास्त्र के सारे मन्त्रों की परीक्षा कर चुके, पर मनोरथ पूरा न हुआ। अब क्या करना चाहिये, यह उनकी समझ में न आता था।
एक दिन वह इसी चिंता में बैठे हुए थे कि उनके सहपाठी मित्र नयनसुखराम आकर बैठ गये और सलाम-वलाम के बाद मुस्कराकर बोले-आजकल तो खूब गहरी छनती होगी। नयी बीवी का आलिंगन करके जवानी का मजा आ जाता होगा? बड़े भाग्यवान हो! भई रूठी हुई जवानी को मनाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं कि नया विवाह हो जाये। यहां तो जिन्दगी बवाल हो रही है। पत्नी जी इस बुरी तरह चिमटी हैं कि किसी तरह पिण्ड ही नहीं छोड़ती। मैं तो दूसरी शादी की फिक्र में हूं। कहीं डौल हो, तो ठीक-ठाक कर दो। दस्तूरी में एक दिन तुम्हें उसके हाथ के बने हुए पान खिला देंगे।
तोताराम ने गम्भीर भाव से कहा-कहीं ऐसी हिमाकत न कर बैठना, नहीं तो पछताओगे। लौंडियां तो लौंडों से ही खुश रहती हैं। हम तुम अब उस काम के नहीं रहे। सच कहता हूं मैं तो शादी करके पछता रहा हूं, बुरी बला गले पड़ी! सोचा था, दो-चार साल और जिन्दगी का मजा उठा लूं, पर उलटी आंतें गले पड़ीं।
नयनसुख-तुम क्या बातें करते हो। लौडियों को पंजों में लाना क्या मुश्किल बात है, जरा सैर-तमाशे दिखा दो, उनके रूप-रंग की तारीफ कर दो, बस, रंग जम गया।
तोता-यह सब कुछ कर-धरके हार गया।
नयन-अच्छा, कुछ इत्र-तेल, फूल-पत्ते, चाट-वाट का भी मजा चखाया?
तोता-अजी, यह सब कर चुका। दम्पत्ति-शास्त्र के सारे मन्त्रों का इम्तहान ले चुका, सब कोरी गप्पे हैं।
नयन-अच्छा, तो अब मेरी एक सलाह मानो, जरा अपनी सूरत बनवा लो। आजकल यहां एक बिजली के डॉक्टर आये हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे निशान मिटा देते हैं। क्या मजाल कि चेहरे पर एक झुर्रीया या सिर का बाल पका रह जाये। न जाने क्या जादू कर देते हैं कि आदमी का चोला ही बदल जाता है।
तोता-फीस क्या लेते हैं?
नयन-फीस तो सुना है, शायद पांच सौ रूपये!
तोता-अजी, कोई पाखण्डी होगा, बेवकूफों को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डॉक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पांच की बात होती, तो कहता, जरा दिल्लगी ही सही। पांच सौ रूपये बड़ी रकम है।
नयन-तुम्हारे लिए पांच सौ रूपये कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे पास तो भाई पांच सौ रूपये होते, तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी के एक घण्टे की कीमत पांच सौ रूपये से कहीं ज्यादा है।
तोता-अजी, कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जुड़ी-बूटी जो कि बिना हर्र-फिटकरी के रंग चीखा हो जाये। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हो।
नयन-तो फिर रंगीलेपन का स्वांग रचो। यह ढीला-ढाला कोट फेंकों, तंजेब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदार पाजामा, गले में सोने की जंजीर पड़ी हुई, सिर पर जयपुरी साफा बांधा हुआ, आंखों में सुरमा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पिचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबन्द बांधे। जरा तकलीफ तो होगी, पार अचकन सज उठेगी। खिजाब मैं ला दूंगा। सौ-पचास गजलें याद कर लो और मौके-मौके से शेर पढ़ी। बातों में रस भरा हो। ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फिक्र नहीं है, बस, जो कुछ है, प्रियतमा ही है। जवांमर्दी और साहस के काम करने का मौका ढूंढते रहो। रात को झूठ-मूठ शोर करो-चोर-चोर और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो। हां, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आ जाये और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी कलई खुल जायेगी और मुफ्त के उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवांमर्दी इसी में है कि दम साधे खड़े रहो, जिससे वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई, लेकिन ज्योंही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछलकर बाहर निकलो और तलवार लेकर ‘कहां? कहां?’ कहते दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक महीना मेरी बातों का इम्तहान करके देखें। अगर वह तुम्हारी दम न भरने लगे, तो जो जुर्माना कहो, वह दूं।
तोताराम ने उस वक्त तो यह बातें हंसी में उड़ा दीं, जैसा कि एक व्यवहार कुशल मनुष्य को करना चहिए था, लेकिन इसमें की कुछ बातें उसके मन में बैठ गयी। उनका असर पड़ने में कोई संदेह न था। धीरे-धीरे रंग बदलने लगे, जिसमें लोग खटक न जायें। पहले बालों से शुरू किया, फिर सुरमे की बारी आयी, यहां तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था, लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।
उस दिन से वह रोज अपनी जवांमर्दी का कोई-न-कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं इन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के दो फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज हो, उसके छैलेपन पर उन्माद का सन्देह हो, तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और क्या रंग जमता? हों उसे उन पार दया आजे लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उन पर होती है, जो अपने होश में हो, पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियां लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हां, इसका ध्यान रखती थी कि वह समझ न जायें। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित कर रहा है। यह सारा स्वांग केवल इसलिए तो है कि मैं अपना दु:ख भूल जाऊं। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊं?
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