मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

आठ

पेज- 29

यह सोचकर मंसाराम रोने लगा। ज्यों-ज्यों मातृ स्नेह की पूर्व-स्मृतियां जागृत होती थीं, उसके आंसू उमड़ते आते थे। वह कई बार अम्मां-अम्मां पुकार उठा, मानो वह खड़ी सुन रही हैं। मातृ-हीनता के दु:ख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ। वह आत्माभिमानी था, साहसी था, पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने आप को निराधार समझ रहा था।
रात के दस बज गये थे। मुंशीजी आज कहीं दावत खाने गये हुए थे। दो बार महरी मंसाराम को भोजन करने के लिए बुलाने आ चुकी थी। मंसाराम ने पिछली बार उससे झुंझलाकर कह दिया था-मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊंगा। बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है। इसीलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, तो वह न गयी।
बोली-बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे।
निर्मला-आयेंगे क्यों नहीं? जाकर कह दे खाना ठण्डा हुआ जाता है। दो चार कौर खा लें।
महरी-मैं यह सब कह के हार गयी, नहीं आते।
निर्मला-तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं।
महरी-नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं कहा, झूठ क्यों बोलूं।
निर्मला-अच्छा, तो जाकर यह कह देना, वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। तुम न खाओगे तो वह रसोई उठाकर सो रहेंगी। मेरी भूंगी, सुन, अबकी और चली जा। (हंसकर) न आवें, तो गोद में उठा लाना।
भूंगी नाक-भौं सिकोड़ते गयी, पर एक ही क्षण में आकर बोली-अरे बहूजी, वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या?
निर्मला इस तरह चौककर उठी और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएं में गिर पड़ने की खबर पायी हो, फिर वह ठिठक गयी और भूंगी से बोली-रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं क्यों रो रहे हैं?
भूंगी- नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं पूछा। झूठ क्यों बोलूं?
वह रो रहे हैं। इस निस्तबध रात्रि में अकेले बैठै हुए वह रो रहे हैं। माता की याद आयी होगी? कैसे जाकर उन्हें समझाऊं? हाय, कैसे समझाऊं? यहां तो छींकते नाक कटती है। ईश्वर, तुम साक्षी हो अगर मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो, तो वह मेरे गे आये। मैं क्या करुं? वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिताजी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे विश्वास दिलाऊं कि मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला? अगर मैं ऐसे देवकुमार के-से चरित्र रखने वाले युवक का बुरा चेतूं, तो मुझसे बढ़कर राक्षसी संसार में न होगी।   
निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कांति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास बदन संकुचित होता जाता है। इसका कारण भी उससे छिपा न था, पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख-देखकर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था, पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में झुंझलाती कि मंसाराम क्यों जरा-सी बात पर इतना क्षोभ करता है? क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया? मेरी और बात है, एक जरा-सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है, पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?

 

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