मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

ग्यारह

पेज- 36

मंसाराम ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-कितने दिनों में काम तमाम हो जायेगा, डक्टर साहब?
डाक्टर-कैसी बात करते हो जी। मैं वकील साहब से मिलकर तुम्हें किसी पहाड़ी जगह भेजने की सलाद दूंगा। ईश्वर ने चाहा, तो बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे। बीमारी अभी पहले स्टेज में है।
मंसाराम-तब तो अभी साल दो साल की देर मालूम होती है। मैं तो इतना इंतजार नहीं कर सकता। सुनिए, मुझे थायसिस-वायसिस कुछ नहीं है, न कोई दूसरी शिकायत ही है, आप बाबूजी को नाहक तरद्रदुद में न डालिएगा। इस वक्त मेरे सिर में दर्द है, कोई दवा दीजिए। कोई ऐसी दवा हो, जिससे नींद भी आ जाये। मुझे दो रात से नींद नहीं आती।
डॉक्टर ने जहरीली दवाइयों की आलमारी खोली और शीशी से थोड़ी सी दवा निकालकर मंसाराम को दी। मंसाराम ने पूछा-यह तो कोई जहर है भला इस कोई पी ले तो मर जाये?
डॉक्टर-नहीं, मर तो नहीं जाये, पर सिर में चक्कर जरूर आ जाये।
मंसाराम-कोई ऐसी दवा भी इसमें है, जिसे पीते ही प्राण निकल जायें?
डॉक्टर-ऐसी एक-दो नहीं कितनी ही दवाएं हैं। यह जो शीशी देख रहे हो, इसकी एक बूंद भी पेट में चली जाये, तो जान न बचे। आनन-फानन में मौत हो जाये।
मंसाराम-क्यों डॉक्टर साहब, जो लोग जहर खा लेते हैं, उन्हें बड़ी तकलीफ होती होगी?
डॉक्टर-सभी जहरों में तकलीफ नहीं होती। बाज तो ऐसे हैं कि पीते ही आदमी ठंडा हो जाता है। यह शीशी इसी किस्म की है, इस पीते ही आदमी बेहोश हो जाता है, फिर उसे होश नहीं आता।
मंसाराम ने सोचा-तब तो प्राण देना बहुत आसान है, फिर क्यों लोग इतना डरते हैं? यह शीशी कैसे मिलेगी? अगर दवा का नाम पूछकर शहर के किसी दवा-फरोश से लेना चाहूं, तो वह कभी न देगा। ऊंह, इसे मिलने में कोई दिक्कत नहीं। यह तो मालूम हो गया कि प्राणों का अन्त बड़ी आसानी से किया जा सकता है। मंसाराम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम पा गया हो। उसके दिल पर से बोझ-सा हट गया। चिंता की मेघ-राशि जो सिर पर मंडरा रही थी, छिन्न-भिन्न्  हो गयी। महीनों बाद आज उसे मन में एक स्फूर्ति का अनुभव हुआ। लड़के थियेटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी। मंसाराम भी उनके साथ थियेटर देखने चला गया। ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है। थियेटर में नकल देखकर तो वह हंसते-हंसते लोट गया। बार-बार तालियां बजाने और ‘वन्स मोर’ की हांक लगाने में पहला नम्बर उसी का था। गाना सुनकर वह मस्त हो जाता था, और ‘ओहो हो। करके चिल्ला उठता था। दर्शकों की निगाहें  बार-बार उसकी तरफ उठ जाती थीं। थियेटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं। उसके मित्रों को उसकी उच्छृंखलता पर आश्चर्य हो रहा था। वह बहुत ही शांतचित्त, गम्भीर स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है, क्यों उसके विनोद का पारावार नहीं है।
          दो बजे रात को थियेटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ। उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरे के द्वार बाहर से बंद कर दिये और उन्हें भीतर से खट-खट करते सुनकर हंसता रहा। यहां तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय करी नींद में भी शोरगुल सुनकर खुल गयी और उन्होंने मंसाराम की शरारत पर खेद प्रकट किया। कौन जानता है कि उसके अन्त:स्थल में कितनी भीषण क्रांति हो रही है? संदेह के निर्दय आघात ने उसकी लज्जा और आत्मसम्मान को कुचल डाला है। उसे अपमान और तिरस्कार का लेशमात्र भी भय नहीं है। यह विनोद नहीं, उसकी आत्मा का करुण विलाप है। जब और सब लड़के सो गये, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेकिन उसे नींद नहीं आयी। एक क्षण के बाद वह बैठा और अपनी सारी पुस्तकें बांधकर संदूक में रख दीं। जब मरना ही है, तो पढ़कर क्या होगा? जिस जीवन में ऐसी-एसी बाधाएं हैं, ऐसी-ऐसी यातनाएं हैं, उससे मृत्यु कहीं अच्छी।

 

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