Home Page

States of India

Hindi Literature

Religion in India

Articles

Art and Culture

 

झांकी Jhaankee Premchand's Hindi story

झांकी Jhaankee Premchand's Hindi story

 

कई दिन से घर में कलह मचा हुआ था। मॉँ अलग मुँह फुलाए बैठी थीं, स्त्री अलग। घर की वायु में जैसे विष भरा हुआ था। रात को भोजन नहीं बना, दिन को मैंने स्टोव पर खिचड़ी डाली: पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास: पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता था, मानों उसने भी अपराध किया हो, लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में मन मारे बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे-घर में आज क्यों लोगों के हृदय उनसे इतने फिर गए हैं। भाई-बहिन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोनी-पीटना भी कई बार हो जाता है: पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न पके या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे गुजर जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था।
झगड़े की जड़ कुछ न थी। अम्मॉँ ने मेरी बहन के घर तीजा भेजन के लिए जिन सामानों की सूची लिखायी, वह पत्नीजी को घर की स्थिति देखते हुए अधिक मालूम हुई। अम्मॉँ खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छॉँट कर दी थी: लेकिन पत्नीजी के विचार से और काट-छॉँट होनी चाहिए थी। पॉँच साहिड़यों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने क्या होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरुरत! उनका कहा था—जब रोजगार में कुछ मिलता नहीं, दैनिरक कार्यो में खींच-तान करनी पड़ती है, दूध-घी के बजट में तकलीफ हो गई, तो फिर तीजे में क्यों इतनी उदारता की जाए? पहले घर में दिया जलाकर तब मसजिद में जलाते हैं।यह नहीं कि मसजिद में तो दिया जला दें और घर अँधेरा पड़ा रहे। इसी बात पर सास-बहू में तकरार हो गई, फिर शाखें फूट निकलीं। बात कहॉँ से कहॉँ जा पहुँची, गड़े हुए मुर्दे उखाड़े गए। अन्योक्तियों की बारी आई, व्यंग्य का दौर शुरु हुआ और मौनालंकार पर समाप्त हो गया।
मैं बड़े संकट में था। अगर अम्मॉँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नीजी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीबों को कोसने लगती हैं: पत्नी की-सी कहता हूँ तो जनमुरीद की उपाधि मिलती है। इसलिए बारी-बारी से दोनों पक्षों का समर्थन करता जाता था: पर स्वार्थवश मेरी सहानुभूति पत्नी के साथ ही थी। खुल कर अम्मॉँ से कुछ न कहा सकता थ: पर दिल में समझ रहा था कि ज्यादती इन्हीं की है। दूकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। असामियों से टका वसूल नहीं होता, तो इन पुरानी लकीरों को पीटकर क्यों अपनी जान संकट में डाली जाए!
बार-बार इस गृहस्थी के जंजाल पर तबीयत झुँझलाती थी। घर में तीन तो प्राणी हैं और उनमें भी प्रेम भाव नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़छाड़कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इनको होश आएगा: तब मालूम होगा कि गृहस्थी कैसे चलती है। क्या जानता था कि यह विपत्ति झेलनी पड़ेगी नहीं विवाह का नाम ही न लेता। तरह-तरह के कुत्सित भाव मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्मॉँ मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पॉँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरा क्या दोष? मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो सच्चा आनंद होगा, यदि सास-बहू में इतना प्रेम हो जाए: लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोननों में प्रेम डाल दूँ। अगर अम्मॉँ ने अपनी सास की साड़ी धोई है, उनके पॉँव दबाए हैं, उनकी घुड़कियॉँ खाई हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों चुकाना चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुऍं अब भयवश सास की गुलामी नहीं करतीं। प्रेम से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रोब दिखाकर उन पर शासन करना चाहो, तो वह दिन लद गए।
सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में संग्राम छिड़ा हुआ था। संध्या हो गई थी: पर घर अंधेरा पड़ा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर क्रोध आया। लड़ती हो, लड़ो: लेकिन घर में अँधेरा क्यों न रखा है? जाकर कहा-क्या आज घर में चिराग न जलेंगे?
पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा-जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?
मेरी देह में आग लग गई। बोला-तो क्या जब तुम्हारे चरण नहीं आये थे, तब घर में चिवराग न जलते थे?
अम्मॉँ ने आग को हवा दी-नहीं, तब सब लोग अँधेरे ही में पड़े रहते थे।
पत्नीजी को अम्मॉँ की इस टिप्पणी ने जामें के बाहर कर दिया। बोलीं-जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे इस घर में आये दस साल हो गए।
मैंने डांटा-अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।
‘ओहो! तुम तो ऐसा डॉँट रहे हो, जेसे मुझे मोल लाए हो?’
‘मैं कहती हूँ, चुप रहो!’
‘क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।‘
‘इसी सका नाम पतिव्रत है?’
‘जैसा परास्त होकर बाहर चला आया, और अँधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा। जब इस कुलच्छनी से मेरा विवाह हुआ था। इस अंधकार में भी दस साल का जीवन सिनेमा-चित्रों की भॉँति मेरे नेत्रों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं प्रकाश की झलक न थी, कहीं स्नेह की मृदुता न थी।


2

सहसा मेरे मित्र पंडित जयदेवजी ने द्वार पर पुकारा—अरे, आज यह अँधेरा क्यों कर रखा है जी? कुछ सूझती ही नहीं। कहॉँ हो?
मैंने कोई जवाब न दिया। सोचा, यह आज कहॉँ से आकर सिर पर सवार हो गए।
जयदेव से फिर पुकारा—अरे, कहॉँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?
कहीं से कोई जवाब न मिला।
जयदेव ने द्वार को इतनी जोर से झँझोड़ा कि मुझे भय हुआ, कहीं दरवाजा चौखट-बाजू समेत गिर न पड़े। फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना खल रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की सॉँस ली। बारे शैतान टला, नहीं घंटों सिर खाता।
मगर पॉँच ही मिनट में फिर किसी के पैरो की आहट मिली और अबकी टार्च के तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर कुतूहल से पूछा—तु कहॉँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है? चिराग क्यों नहीं जले?
मैंने बहाना किया—क्या जानें, मेरे सिर में दर्द था, दूकान से आकर लेते, तो नींद आ गई
‘और सोए तो घोड़ा बेचकर, मुर्दो से शर्त लगाकर?’
‘हॉँ यार, नींद आ गई।’
‘मगर घर में चिराग तो जलाना चाहिए था या उसका रिट्रेंचमेंट कर दिया?’
‘आज घर में लोग व्रत से हैं न। हाथ न खाली होगा।’
‘खैर चलो, कहीं झॉँकी देखने चलते हो? सेठ घूरेमल के मंदिर में ऐसी झॉँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाए हैं कि ऑंखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौहारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फहारें निकलती हैं। मेरा तो चोला मस्त हो गया। सीधे तुम्हारे पास दौड़ा चला आ रहा हूँ। बहुत झँकियॉँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है। आलम फटा पड़ता है। सुनते हैं दिल्ली से कोई चतुर कारीगर आया है। उसी की यह करामात है।’
मैंने उदासीन भाव से कहा—मेरी तो जाने की इच्दा नहीं है भाई! सिर में जोर का दर्द है।
‘तब तो जरुर चलो। दर्द भाग न जाए तो कहना।’
‘तुम तो यार, बहुत दिक करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले: लेकिन तुम सिर पर सवार हो गए। कहा दिया—मैं न जाऊँगा।
‘और मैंने कह दिया—मैं जरुर ल जाऊँगा।’
मुझ पर विजय पाने का मेरे मित्रों को बहुंत आसान नुस्खा हैं यों हाथा-पाई, धींगा-मुश्ती, धौल-धप्पे में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और परास्त हुआ। फिर मेरी कुछ नहीं चलती। मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ घिघियाने लगता हूँ और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ। जयदेव ने वही नुस्खा आजमाया और उसकी जीत हो गई। संधि की वही शर्त ठहरी कि मैं चुपके से झॉँकी देखने चला चलूँ।

3


सेठ घूरेलाल उन आदमियों में हैं, जिनका प्रात: को नाम ले लो, तो दिन-भर भोजन न मिले। उनके मक्खीचूसपने की सैकड़ों ही दंतकथाऍं नगर में प्रचलित हैं। कहते हैं, एक बार मारवाड़ का एक भिखारी उनके द्वार पर डट गया कि भिक्षा लेकर ही जाऊँगा। सेठजी भी अड़ गए कि भिक्षा न दूँगा, चाहे  कुछ हो। मारवाड़ी उन्हीं के देश का था। कुछ देर तो उनके पूर्वजों का बखान करता रहा, फिर उनकी निंदा करने लगा, अंत में द्वार पर लेट रहा। सेठजी ने रत्ती-भर परवाह न की। भिक्षुक भी अपनी धुन का पक्का था। सारा दिन द्वार पर बे-दाना-पानी पड़ा रहा और अंत में वही मर गया। तब सेठ जी पसीजे और उसकी क्रिया इतनी धूम-धाम से की कि बहुत कम किसी ने की होगी। भिक्षुक का सत्याग्रह सेठजी ने के लिए वरदान हो गया। उनके अन्त:करण में भक्ति का जैसे स्रोत खुल गया। अपनी सारी सम्पत्ति धर्मार्थ अर्पण कर दी।
हम लोग ठाकुरदारे में पहुँचे: तो दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। कंधे से कंधा छिलता था। आने और जाने के मार्ग अलग थे, फिर हमें आध घंटे के बाद भीतर जाने का अवसर मिला। जयदेव सजावट देख-देखकर लोट-पोट हुए जाते थे, पर मुझे ऐसा मालूम होता था कि इस बनावट और सजावट के मेले में कृष्ण की आत्मा कहीं खो गई है। उनकी वह रत्नजटित, बिजली से जगमगाती मूर्ति देखकर मेरे मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। इस रुप में भी प्रेम का निवास हो सकता है? मैंने तो रत्नों में दर्प और अहंकार ही भरा देखा है। मुझे उस वक्त यही याद न रही, कि यह एक करोड़पति सेठ का मंदिर है और धनी मनुष्य धन में लोटने वाले ईश्वर ही की कल्पना कर सकता है। धनी ईश्वर में ही उसकी श्रद्धा हो सकती है। जिसके पास धन नहीं, वह उसकी दया का पात्र हो सकता है, श्रद्धा का कदापि नहीं।
मन्दिर में जयदेव को सभी जानते हैं। उन्हें तो सभी जगह सभी जानते हैं। मंदिन के ऑंगन में संगीत-मंडली बैठी हुई थी। केलकर जी अपने गंधर्व-विद्यालय के शिष्यों के साथ तम्बूरा लिये बैठे थे। पखावज, सितार, सरोद, वीणा और जाने कौन-कौन बाजे, जिनके नाम भी मैं नहीं जानता, उनके शिष्यों के पास थे। कोई गत बजाने की तैयारी हो रही थी। जयदेव को देखते ही केलकर जी ने पुकारा! मै भी तुफैल में जा बैठा। एक क्षण में गत शुरु हुई। समॉँ बँध गया।
जहॉँ इतना शोर-गुल था कि तोप की आवाज भी न सुनाई देती, वहॉँ जैसे माधुर्य के उस प्रवाह ने सब किसी को अपने में डुबा लिया। जो जहॉँ था, वहीं मंत्र मुग्ध-सा खड़ा था। मेरी कल्पना कभी इतनी सचित्र और संजीव न थी। मेरे सामने न वही बिजली का चका-चौंध थी, न वह रत्नों की जगमगाहट, न वह भौतिक विभूतियों का समारोह। मेरे सामने वही यमुना का तट था, गुल्म-लताओं का घूँघट मुँह पर डाले हुए। वही मोहिनी गउऍं थीं, वही गोपियों की जल-क्रीड़ा, वहीं वंशी की मधुर ध्वनि, वही शीतल चॉँदनी और वहीं प्यारा नन्दकिशोर! जिसके मुख-छवि में प्रेम और वात्सल्य की ज्योति थी, जिसके दर्शनों ही से हृदय निर्मल हो जाते थे।

4

मैं इसी आनन्द-विस्मृत की दशा में था कि कंसर्ट बन्द हो गया और आचार्य केलकर के एक किशोर शिष्य ने धुरपद अलापना शुरु किया। कलाकारों की आदत है कि शब्दों को कुछ इस तरह तोड़-मरोड़ देते हैं कि अधिकांश सुननेवालों की समझ में नहीं आता कि क्या गा रहे हैं। इस गीत का एक शब्द भी मेरी समझ में न आया: लेकिन कण्ठ-स्वर में कुछ ऐसा मादकता भरा लालित्य था कि प्रत्येक स्वर मुझे रोमांचित कर देता था। कंठ-स्वसर में इतनी जादू शक्ति है, इसका मुझे आज कुछ अनुभव हुआ। मन में एक नए संसार की सृष्टि होने लगी, जहाँ आनन्द-ही-आनन्द है, प्रेम-ही-प्रेम, त्याग-ही-त्याग। ऐसा जान पड़ा, दु:ख केवल चित्त की एक वृत्ति है, सत्य है केवल आनन्द। एक स्वच्छ, करुणा-भरी कोमलता, जैसे मन को मसोसने लगी। ऐसी भावना मन में उठी कि वहॉँ जितने सज्जन बैठे हुए थे, सब मेरे अपने हैं, अभिन्न हैं। फिर अतीत के गर्भ से मेरे भाई की स्मृति-मूर्ति निकल आई।
मेरा छोटा भाई बहुत दिन हुए, मुझसे लड़कर, घर की जमा-जथा लेकर रंगून भाग गया था, और वहीं उसका देहान्त हो गया था। उसके पाशविक व्यवहारों को याद करके मैं उन्मत्त हो उठता था। उसे जीता पा जाता तो शयद उसका खून पी जाता, पर इस समय स्मृति-मूर्ति को देखकर मेरा मन जैसे मुखरित हो उठा। उसे आलिंगन करने के लिए व्याकुल हो गया। उसने मेरे साथ, मेरी स्त्री के साथ, माता के साथ्, मेरे बच्चे के साथ्, जो-जो कटु, नीच और घृणास्पद व्यवहार किये थे, वह सब मुझे गए। मन में केवल यही भावना थी—मेरा भैया कितना दु:खी है। मुझे इस भाई के प्रति कभी इतनी ममता न हुई थी, फिर तो मन की वह दशा हो गई, जिसे विहव्लता कह सकते है!
शत्रु-भाव जैसे मन से मिट गया था। जिन-जिन प्राणियों से मेरा बैर-भाव था,  जिनसे गाली-गलौज, मार-पीट मुकदमाबाजी सब कुछ हो चुकी थी, वह सभी जेसे मेरे गले में लिपट-लिपटकर हँस रहे थे। फिर विद्या (पत्नी) की मूर्ति मेरे सामनरे आ खड़ी हुई—वह मूर्ति जिसे दस साल पहले मैंने देखा था—उन ऑंखों में वही विकल कम्पन था, वहीं संदिग्ध विश्वास, कपोलों पर वही लज्जा-लालिमा, जैसे प्रेम सरोवर से निकला हुआ  िाकई कमल पुष्प हो। वही अनुराग, वही आवेश, वही याचना-भरी उत्सुकता, जिसमें मैंने उस न भूलने वाली रात को उसका स्वागत किया था, एक बार फिर मरे  हृदय में जाग उठी। मधुर स्मृतियों का जैसे स्रोत-सा खुल गया। जी ऐसा तडृपा कि इसी समय जाकर विद्या के चरणों पर सिर रगड़कर रोऊँ और रोते-रोते बेसुध हो जाऊँ। मेरी ऑंखें सजल हो गई। मेरे मुँह से जो कटु शब्द निकले थे, वह सब जैसे ही हृदय में गड़ने लगे। इसी दशा में, जैसे ममतामयी माता ने आकर मुझे गोद में उठा लिया। बालपन में जिस वात्सल्य का आनंद उठाने की मुझमें शक्ति न थीं, वह आनंद आज मैंन उठाया।
गाना बन्द हो गया। सब लोग उठ-उठकर जाने लगे। मैं कल्पना-सागर में ही डूबा रहा।
सहसा जयदेव ने पुकारा—चलते हो, या बैठे ही रहोगे?

 

 

top

National Record 2012

Most comprehensive state website
Bihar-in-limca-book-of-records

Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)

See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217