सुवामा तन-मन से विवाह की तैयारियां करने लगीं। भोर से संध्या तक विवाह के ही धन्धों में उलझी रहती। सुशीला चेरी की भांति उसकी आज्ञा का पालन किया करती। मुंशी संजीवनलाल प्रात:काल से सांझ तक हाट की धूल छानते रहते। और विरजन जिसके लिए यह सब तैयारियां हो रही थी, अपने कमरे में बैठी हुई रात-दिन रोया करती। किसी को इतना अवकाश न था कि क्षण-भर के लिए उसका मन बहलाये। यहॉ तक कि प्रताप भी अब उसे निठुर जान पड़ता था। प्रताप का मन भी इन दिनों बहुत ही मलिन हो गया था। सबेरे का निकला हुआ सॉझ को घर आता और अपनी मुंडेर पर चुपचाप जा बैठता। विरजन के घर जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी। वरन जब कभी वह आती हुई दिखई देती, तो चुपके से सरक जाता। यदि कहने-सुनने से बैठता भी तो इस भांति मुख फेर लेता और रूखाई का व्यवहार करता कि विरजन रोने लगती और सुवामा से कहती-चाची, लल्लू मुझसे रूष्ट है, मैं बुलाती हूं, तो नहीं बोलते। तुम चलकर मना दो। यह कहकर वह मचल जाती और सुवामा का ऑचल पकड़कर खींचती हुई प्रताप के घर लाती। परन्तु प्रताप दोनों को देखते ही निकल भाग्ता। वृजरानी द्वार तक यह कहती हुई आती कि-लल्लू तनिक सुन लो, तनिक सुन लो, तुम्हें हमारी शपथ, तनिक सुन लो। पर जब वह न सुनता और न मुंह फेरकर देखता ही तो बेचारी लड़की पृथ्वी पर बैठ जाती और भली-भॉती फूट-फूटकर रोती और कहती-यह मुझसे क्यों रूठे हुए है ? मैने तो इन्हें कभी कुछ नहीं कहा। सुवामा उसे छाती से लगा लेती और समझाती-बेटा। जाने दो, लल्लू पागल हो गया है। उसे अपने पुत्र की निठुरता का भेद कुछ-कुछ ज्ञात हो चला था।
निदान विवाह को केवल पांच दिन रह गये। नातेदार और सम्बन्धी लोग दूर तथा समीप से आने लगे। ऑगन में सुन्दर मण्डप छा गया। हाथ में कंगन बॅध गये। यह कच्चे घागे का कंगन पवित्र धर्म की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से न निकलेगी और मंण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक है, जो जीवनपर्यन्त सिर से न उठेगी। आज संध्या को सुवामा, सुशीला, महाराजिनें सब-की-सब मिलकर देवी की पूजा करने को गयीं। महरियां अपने धंधों में लगी हुई थी। विरजन व्याकुल होकर अपने घर में से निकली और प्रताप के घर आ पहुंची। चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। केवल प्रताप के कमरे में धुंधला प्रकाश झलक रहा था। विरजन कमरे में आयी, तो क्या देखती है कि मेज पर लालटेन जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा है। धुंधले उजाले में उसका बदन कुम्हलाया और मलिन नजर आता है। वस्तुऍ सब इधर-उधर बेढंग पड़ी हुई है। जमीन पर मानों धूल चढ़ी हुई है। पुस्तकें फैली हुई है। ऐसा जान पड़ता है मानों इस कमरे को किसी ने महीनों से नहीं खोला। वही प्रताप है, जो स्वच्छता को प्राण-प्रिय समझता था। विरजन ने चाहा उसे जगा दूं। पर कुछ सोचकर भूमि से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रखने लगी। मेज पर से धूल झाडी, चित्रों पर से गर्द का परदा उठा लिया। अचानक प्रतान ने करवट ली और उनके मुख से यह वाक्य निकला-‘विरजन। मैं तुम्हें भूल नहीं सकता’’। फिर थोडी देर पश्चात-‘विरजन’। कहां जाती हो, यही बैठो ? फिर करवट बदलकर-‘न बैठोगी’’? अच्छा जाओं मैं भी तुमसे न बोलूंगा। फिर कुछ ठहरकर-अच्छा जाओं, देखें कहां जाती है। यह कहकर वह लपका, जैसे किसी भागते हुए मनुष्य को पकड़ता हो। विरजन का हाथ उसके हाथ में आ गया। उसके साथ ही ऑखें खुल गयीं। एक मिनट तक उसकी भाव-शून्य दृषिट विरजन के मुख की ओर गड़ी रही। फिर अचानक उठ बैठा और विरजन का हाथ छोड़कर बोला-तुम कब आयीं, विरजन ? मैं अभी तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।
विरजन ने बोलना चाहा, परन्तु कण्ठ रूंध गया और आंखें भर आयीं। प्रताप ने इधर-उधर देखकर फिर कहा-क्या यह सब तुमने साफ किया ?तुम्हें बडा कष्ट हुआ। विरजन ने इसका भी उतर न दिया।
प्रताप-विरजन, तुम मुझे भूल क्यों नहीं जातीं ?
विरजन ने आद्र नेत्रों से देखकर कहा-क्या तुम मुझे भूल गये ?
प्रतान ने लज्जित होकर मस्तक नीचा कर लिया। थोडी देर तक दोनों भावों से भरे भूमि की ओर ताकते रहे। फिर विरजन ने पूछा-तुम मुझसे क्यों रूष्ट हो ? मैने कोई अपराध किया है ?
प्रताप-न जाने क्यों अब तुम्हें देखता हूं, तो जी चाहता है कि कहीं चला जाऊं।
विरजन-क्या तुमको मेरी तनिक भी मोह नहीं लगती ? मैं दिन-भर रोया करती हूं। तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ? तुम मुझसे बोलते तक नहीं। बतलाओं मैने तुम्हें क्या कहा जो तुम रूठ गये ?
प्रताप-मैं तुमसे रूठा थोडे ही हूं।
विरजन-तो मुझसे बोलते क्यों नहीं।
प्रताप-मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। तुम धनवान हो, तुम्हारे माता-पिता धनी हैं, मैं अनाथ हूं। मेरा तुम्हारा क्या साथ ?
विरजन-अब तक तो तुमने कभी यह बहाना न निकाला था, क्या अब मैं अधिक धनवान हो गयी ?
यह कहकर विरजन रोने लगी। प्रताप भी द्रवित हुआ, बोला-विरजन। हमारा तुम्हारा बहुत दिनों तक साथ रहा। अब वियोग के दिन आ गये। थोडे दिनों में तुम यहॉ वालों को छोड़कर अपने सुसुराल चली जाओगी। इसलिए मैं भी बहुत चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। परन्तु कितना ही चाहता हूं कि तुम्हारी बातें स्मरण में न आये, वे नहीं मानतीं। अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्वस्पन देख रहा था।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217