मुंशी प्रेमचंद

वरदान

17 कमला के नाम विरजन के पत्र

पेज- 40

(3)

मझगाँव

प्यारे,

तुम्हारी, प्रेम पत्रिका मिली। छाती से लगायी। वाह! चोरी और मुँहजोरी। अपने न आने का दोष मेरे सिर धरते हो ?  मेरे मन से कोई पूछे कि तुम्हारे दशर्न की उसे कितनी अभिलाषा प्रतिदिन व्याकुलता  के रुप में परिणत होती है। कभी-कभी बेसुध हो जाती हूँ। मेरी यह दशा थोड़ी ही दिनों से होने लगी है। जिस समय यहाँ से गये हो, मुझे ज्ञान न था कि वहाँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम्हीं सच और मैं ही झूठ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द किये। पर प्रतापचन्द्र को व्यर्थ दिखाये। वे पत्र बड़ी असावधानी से लिखे गये है। सम्भव है कि अशुद्वियाँ रह गयी हों। मझे विश्वास नहीं आता कि प्रताप ने उन्हें मूल्यवान समझा हो। यदि वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं कि उनके सहार से हमारे ग्राम्य-जीवन पर कोई रोचक निबन्ध लिख सकें, तो मैं अपने को परम भाग्यवान् समझती हूँ।
कल यहाँ देवीजी की पूजा थी। हल, चक्की, पुर चूल्हे सब बन्द थे। देवीजी की ऐसी ही आज्ञा है। उनकी आज्ञा का उल्लघंन कौन करे ? हुक्का-पानी बन्द हो जाए। साल-भर मं यही एक दिन है, जिस गाँवाले भी छुट्टी का समझते हैं। अन्यथा होली-दिवाली भी प्रति दिन के आवश्यक कामों को नहीं रोक सकती। बकरा चढा। हवन हुआ। सत्तू खिलाया गया। अब गाँव के बच्चे-बच्चे को पूर्ण विश्वास है कि प्लेग का आगमन यहाँ न हो सकेगा। ये सब कौतुक देखकर सोयी थी। लगभग बारह बजे होंगे कि सैंकड़ों मनुष्य हाथ में मशालें लिये कोलाहल मचाते निकले और सारे गाँव का फेरा किया।  इसका यह अर्थ था कि इस सीमा के भीतर बीमारी पैर न रख सकेगी। फेरे के सप्ताह होने पर कई मनुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोड़े फूल,पान, चावल, लौंग आदि पदार्थ पृथ्वी पर रख आये। अर्थात् अपने ग्राम की बला दूसरे गाँव के सिर डाल आये। जब ये लोग अपना कार्य समाप्त करके वहाँ से चलने लगे तो उस गाँववालों को सुनगुन मिल गयी। सैकड़ों मनुष्य लाठियाँ लेकर चढ़ दौड़े। दोनों पक्षवालों में खूब मारपीट हुई। इस समय गाँव के कई मनुष्य हल्दी पी रहे हैं।
आज प्रात:काल बची-बचायी रस्में पूरी हुई, जिनको यहाँ कढ़ाई देना कहते हैं। मेरे द्वार पर एक भट्टा खोदा गया और उस पर एक कड़ाह दूध से भरा हुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर है। वह शरीर में भभूत रमाये आया। गाँव के आदमी टाट पर बैठे। शंख बजने लगा। कड़ाह के चतुर्दिक  माला-फूल बिखेर दिये गये। जब कहाड़ में खूब उबाल आया तो काशी झट उठा और जय कालीजी की कहकर कड़ाह में कूद पड़ा। मैं तो समझी अब यह जीवित न निकलेगा। पर पाँच मिनट पश्चात् काशी ने फिर छलाँग मारी और कड़ाह के बाहर था। उसका बाल भी बाँका न हुआ। लोगों ने उसे माला पहनायी। वे कर बाँधकर पूछने लगे-महराज! अबके वर्ष खेती की उपज कैसी होगी ?  बीमारी अवेगी या नहीं ?  गाँव के लोग कुशल से रहेंगे ?  गुड़ का भाव कैसा रहेगा ? आदि। काशी  ने इन सब प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट पर किंचित् रहस्यपूर्ण शब्दों में दिये। इसके पश्चात् सभा विसर्जित हुई। सुनती हूँ ऐसी क्रिया प्रतिवर्ष होती है। काशी की भविष्यवाणियाँ यब सत्य सिद्व होती हैं। और कभी एकाध असत्य भी निकल जाय तो काशी उना समाधान भी बड़ी योग्यता से कर देता है। काशी बड़ी पहुँच का आदमी है। गाँव में कहीं चोरी हो, काशी उसका पता देता है। जो काम पुलिस के भेदियों से पूरा न हो, उसे वह पूरा कर देता है। यद्यपि वह जाति का भर है तथापि गाँव में उसका बड़ा आदर है। इन सब भक्तियों का पुरस्कार वह मदिरा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लेता। नाम निकलवाइये, पर एक बोतल उसको भेंट कीजिये। आपका अभियोग न्यायालय में हैं;  काशी उसके विजय का अनुष्ठान कर रहा है। बस, आप उसे एक बोतल लाल जल दीजिये।
होली का समय अति निकट है ! एक सप्ताह से अधिक नहीं। अहा! मेरा हृदय इस समय कैसा खिल रहा है ? मन में आनन्दप्रद गुदगुदी हो रही है। आँखें तुम्हें देखने के लिए अकुला रही है। यह सप्ताह बड़ी कठिनाई से कटेगा। तब मैं अपने पिया के दर्शन पाँऊगी।

तुम्हारी

विरजन

 

 

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