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अंतिम मंजिल

सौरभ कुमार

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अंतिम मंजिल

किनारे चलते-चलते सरयू के जल ने अपने प्रसिद्ध हमराही का स्पर्श किया। उस यात्री का जिसके जाने के बाद भी वह सरयू की पहचान है। अभी तो वह भी अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था। केवल आगे बढ़ रहा था। सरयू अपने बहाव में बह रही थी और सरयू का वह यात्री भी अपने मंजिल की यात्रा कर रहा था। वह अपने उन्हीं सधे कदमों से आगे बढ़ रहा था जिन कदमों से उसने रामवनवास की यात्रा की थी। लेकिन ठंढ़े पानी के छुअन ने उसे फिर से चेतना में लाने का काम किया। वह सचेत हुआ और फिर उसकी श्वाँस अपने लय में स्थिर हो गई। अभी-अभी कुछ देर पहले हीं उसके हमसाये छोटे भाई लक्ष्मण की जिंदगी सरयू के जल में लीन हो चुकी थी। व्यक्ति चक्रवर्ति सम्राट हो जाने से स्वतंत्र नहीं हो जाता है। वे अब स्वयं खुद का विसर्जन करने सरयू में जा रहे थे। लेकिन सदा की तरह अपने उस मनोभाव को भी तबतक संयमित करना पड़ा जबतक उस विधि का समापन नहीं हो गया जिसमें लक्ष्मण के उनके लोक में जाने के लिए इस लोक के मोह का बंधन का त्याग पूरा ना हो गया।

क्या श्वाँस के स्थिर हो जाने से मन का शान्त हो जाना हीं संपूर्णता है? दुनिया के लिए ईश्वर हो जाने से क्या अभीप्सा नहीं रह जाती है। वे राम हैं, उन्हें हर परीक्षा देनी है। उन्होनें दिया भी। कुछ शाश्वत होने से मोह छोड़ा जा सकता है लेकिन कुछ रिश्ते भी वाकई में आध्यात्मिक होतें हैं। उनमें प्रेम भी होता है। जिनका निभाया जाना मोह नहीं होता है। निभाया जाना हीं सिद्धि होती है।

उनके प्रेम में महाराज दशरथ ने अपने जीवन को खो दिया था। प्रेम जब बढ़ जाये तो खुद को हीं खोना पड़ता है। सीता के साथ खुद उनका प्यार भी उदृप्त होकर रह गया। जो प्यार साथ रह कर ना जीया जा सका वह अलग रह कर बढ़ सका। दूर रहकर जब प्यार को जीया जाता है तो खोकर हीं जीया जा सकता है। बिना खुद को खोय कोई आवश्यकता से ऊपर नहीं उठ पाता है। महत्व इसी बात का है कि वह फिर भी प्यार है। लोग अलग होकर भी जी लेते हैं लेकिन खोकर, शायद प्यार को हीं खोकर जी लेते हैं। लोग तो सीता के अलगाव को देखते हैं। सीता के प्रति राम के कठोर निर्णय को देखते हैं। सीता के राम के प्रति प्रेम को देखते हैं। सीता राम से दूर गई तो यह भी तो उतना हीं सत्य है कि राम भी सीता से दूर हीं हो गये थे। क्या खुद राम के भीतर वेदना ने जन्म नहीं लिया था जो राम के हृदय में पैदा हुई थी।

सरयू के कमर जितने जल में राम जा चुके थे। सरयू के जल में कुछ ऐसा था जो शान्त होते जा रहा था। राम ने संतुलन की शिक्षा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से ली थी। संतुलन की आवश्यकता तब होती है जब भले हीं कामना ना हो परंतु कोई प्रयोजन हो। राम को अपने धाम तो जाना था परंतु इस प्रकार अपने भाई को खोकर जीने का प्रयोजन नहीं हो सकता है। एकांत जरूरी है, आवश्यक मंत्रणा के लिए। लेकिन क्या अयोध्या को महर्षि के श्राप से बचाने के लिए राम की आज्ञा को तोड़कर काल के सामने आना क्या इतना बढ़ा अभिशाप था जिसके लिए लक्ष्मण को खोना पड़ा। राम कुछ नहीं कर सकते। राम खुद को शेष करने जा रहें हैं। लेकिन क्या यह कहा जा सकता है आगे कुछ ऐसी घटना नहीं रची जायेगी जिस की जिम्मेदारी भी राम को नहीं उठाना पड़ेगा।

अश्वमेध यज्ञ के लिए सीता की मूर्ति सोने की बनी। अगर राम के मन में सीता के लिए जगह हीं नहीं होती तो सीता की स्वर्ण छवि क्यों निर्मित होती जिसे कभी-कभी गोल्डेन लाईट कहा जाता है। सरयू का जल अब राम के धड़कन को प्रतिध्वनित करने लगा था। दिल से प्रेम जब उड़ता है तो मन के सागर के जल को भी वाष्पित कर देता है। जो सीता सिर्फ हाड़-मांस में बंधी थी वह स्वर्ण आभा हो गयी। विश्वास सिर्फ इसलिए विश्वास नहीं होता कि वह किसी पर विश्वास का नाम है। वह विश्वास है, जो धोखे को खाकर भी विश्वास हीं बना हुआ है। जो दूसरे से पाये धोखे के बाद भी अपना विश्वास नहीं छोड़ पाता। जो विश्वास हीं करता रह जाता है। यह सच है बिना आसक्ति के कोई भी धोखे में नहीं आता। स्वर्णमृग की आसक्ति राम को भी धोखे में डालती है। पर राम क्या स्वर्णमृग से ठगे गये थे या सीता के उठने वाले मुख के प्रभा से मोहित हुए थे।

जो राम के अधर अपनी स्मित से दूसरों को शांति देते थे वह अब सरयू के जल से खुद को शांत कर रहे थे। राम के कदम अब भी उठ रहे थे। राम शांत थे। निर्विकार थे। उनकी श्वाँस अब भी अपनी गति से चल रही थी। लेकिन उनके उठने वाले कदम अब जल के लय में विलंबित उठ रहे थे।
जिस राजीवनयन की साधना माता कौशल्या ने उन में की थी। उसी विश्वास के सहारे उन्होनें दुर्गम्यता से जानी और पाने वाली त्रिलोकजयी रावण मर्दिनी दुर्गा को पाया था। जहाँ परीक्षा कर विश्वास करने की संभावना हीं नहीं है। जीवन में किये जानेवाले विश्वास हीं उत्तर है। जहाँ सवाल सिद्धि का नहीं होता। जहाँ भगवती को अपने राजीवनयन देकर प्रेम किया जाता है। जहाँ ईश्वर होने के लिए श्रद्धा की जरूरत होती है परंतु वह श्रद्धा खुद की खुद के प्रति होती है। बिना विश्वास किए देवता भी देवता नहीं हो पाता। देव को देव होने के लिए विश्वास की जरूरत होती है। खुद के प्रति, अपनों के प्रति तभी अद्वैत होता है, तभी लीला होती है।

राजीवनयन के जल को सरयू के जल का स्पर्श हो चुका था। जिन बाँहों को फैलाकर राम ने ब्रह्माण्ड से एकात्म किया था वही फैली बाँहें राम को सरयू में मिलाने के लिए राम को जल में छोड़ चुकी थी। जिस तरह तानपुरे पर सा और प की ध्वनि गूँज बन जाती है उसी प्रकार सीता की कामनाहीन ध्वनि राम के भीतर उठ चुकी थी। कुछ ऐसा था जो अब तक सरयू के वक्ष पर भारहीन होकर सदा के लिए शांत तैर चुका था।

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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