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शिव और काली

सौरभ कुमार

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शिव और काली

शिव को शव से शिव काली करती हैं। मृत्यु का साक्षात्कार, शव समान चित्त का हो जाना, आत्म-साक्षात्कार करना है और यह समाधि है। जिस समुद्र मंथन से निकले अमृत को पीकर देवता अमर हुए वह भी परिवर्त्तन से नहीं बचा पाता। देव अमर हुए परंतु काल का प्रभाव उन पर है, संबोधि ने उन्हें देव बनाए रखा है। जिसे विष समझ कर कालकूट समझा गया और अत्यंत मूल्यवान मान कर उपेक्षा न कर जिसे शिव को दिया गया। उसने शिव को मृत्युंजय हीं नहीं बनाया बल्कि शिव ने जाना यह विष नहीं अपितु यह तो साक्षात परम सत्य एवं शाश्वत शक्ति का प्रेममय तत्व है। जिसकी प्यास शिव के भीतर है। अत: शिव ने प्रेम के चक्र अनाहत के प्रेम तथा आज्ञा चक्र के निष्काम के क्षेत्र के बीच में प्रेम को श्रेयकर बनाकर हीं गले (विशुद्धि चक्र) में धारण कर लिया।
शिव का प्रेम है जब काली आती है तभी वे शव (समाधि) से शिव बनते हैं और काली का शिव से दूर जाना उन्हें समाधि में ले जाता है। और यह समाधि भी क्या है काली का ध्यान, काली के अस्तित्व को अपने भीतर पाना हीं शिव की समाधि है। काली जब शिव के जिंदगी में साकार होती है तो शंकर-पार्वती का युग्म उपस्थित होता है।

शिव का अस्तित्व हीं एक प्रेमी का अस्तित्व है। प्रेम हमें जोड़ देता है। प्रेम से बंधन का गिर जाना हीं अद्वैत है। जब तक हम प्रेम को दूसरे रूप में पाते है तभी तक वह पाने न पाने का विकल्प है। जब प्रेम भी हमारा हीं अस्तित्व हो जाता है तब वह पाने न पाने का विकल्प नहीं रहता है। प्यार करना भी नहीं रह जाता। वह हमारा अस्तित्व हो जाता है। इसीलिए शिव का शव और शिव होना सवाल काली के आने न आने का नहीं रहता। अपने अस्तित्व के सचेतन (प्रेम) नाद और बिंदु हो जाने का रह जाता है। इसलिए प्रेमी शिव के पास परायापन नहीं है। शिव के पास असुर और देव होना नहीं होता। उनका प्रेम उनकी दृष्टि को व्यष्टि रूप नहीं देता। बल्कि वह उनके अस्तित्व का हीं स्वीकारा जाने वाला रूप है। बल्कि वह शिव के स्यात रूप की कहानी है। वह प्रेम का ही स्यात रूप है। अंत में भी वह शिव के भीतर हीं शिव के द्वारा पाया जाना है। और प्रेम तो असुर और देव दोनों के भीतर भी है। इसीलिए प्रेमी शिव के पास कुंठा नहीं है। मोह भी नहीं है। वो अगर स्वीकार कर सकते हैं तो नष्ट भी होने देते हैं। शिव के पास प्रेम की वह अभिव्यक्ति है जो मिटा सकता है। स्वयं को भी और सृष्टि का भी लय कर सकता है। क्योंकि मिटना भी प्रेम में हीं समा जाना है और सृष्टि भी प्रेम को पाने के रूप में है। 

 

 

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