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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 20

सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।।
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै।।
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू।।
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ।।
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं।।
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी।।
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।

दो0--औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।।77।।


रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी।।
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने।।
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही।।
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा।।
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई।।
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी।।
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू।।

दो0--सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि।।78।।


सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।।
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी।।
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।।
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।।
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा।।
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू।।
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।

दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।।79।।


निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।।
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे।।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी।।
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई।।
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी।।

दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।80।।

 

 

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