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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 20

दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी।।
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा।।
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती।।
बहु बिलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई।।
रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी।।
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ।।
देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई।।
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ।।
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना।।
इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा।।
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू।।

दो0-मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास।।72।।


सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना।।
डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना।।
दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई।।
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना।।
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं।।
अवघट घाट बाट गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि सर पंजर।।
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर।।
मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला।।
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन।।
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा।।
ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी।।
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र एक भगवाना।।
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो।।

दो0-गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास।।73।।


चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी।।
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी।।
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा।।
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा।।
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही।।
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो।।
मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती।।
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो।।
बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा।।
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो।।

दो0-खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ। 74(क)।।
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ।।74(ख)।।

 

 

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