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तूफान खलील जिब्रान

तूफान खलील जिब्रान

भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी

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उन्होंने द्वार खोला और अन्धकार में  अपने सिर को ऊपर उठाये बाहर निकल गये। यह देखने के लिए कि वे कौन-से रास्ते से गये हैं, मैं ड्योढ़ी पर ही खड़ा रहा, कितुं शीघ्र ही वे मेरी आंखों से ओझल हो गये। कुछ मिनटों तक मैं घाटी के कंकड़ –पत्थरो पर उनकी पदचाप सुनता रहा।

 गहन विचारो की उम रात्रि के पश्चात जब सुबह हुई तब तूफान चुका था और आसमान निर्मल हो गया था। सूर्य की गर्म किरणों से मैदान और घाटियां तमतमा रही थीं। नगर को लौटते समय मैं उस आत्मिक जागृति के सम्बन्ध में सोचता जाता था, जिसके लिए यूसुफ-अल-फाख़री ने इतना कुछ कहा था। वह जागृति मेरे अंग-अंग में व्याप रही थी। मैंने सोचा कि मेरा यह स्फरण अवश्य ही प्रकट होना चाहिए। जब मैं कुछ शान्त हुआ तो मैंने देखा कि मेरे चारों ओर पूर्णता तथा सुन्दरता बसी हुई है।

जैसे ही मैं उन चीखते-पुकारते नगर के लोगों के पास पहुंचा मैंने उनकी आवाजों को सुना और उनके कार्यो को देखा, तो मैं रूक गया और अपने अन्त:करण से बोला, "हां आत्मबोध मनुष्य के जीवन में अति आवश्यक है और यही मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।क्या स्वयं सभ्यता समस्त दु:खपूर्ण बहिरंग में आत्मिक जागृति के लिए एक महान ध्येय नहीं है? तब हम किस प्रकार एक ऐसे पदार्थ के अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं, जिसका अस्तित्व ही अभीप्सित योग्यता की समानता का पक्का प्रमाण है? वर्तमान सभ्यता चाहे नाशकारी प्रयोजन ही रखती हो, कितुं ईश्वरीय विधान ने उस प्रयोजन के लिए एक ऐसी सीढ़ी प्रदान की है, जो स्वतन्त्र अस्तित्व की ओर ले जाती है।"

मैंने फिर कभी यूसुफ-अल फाख़री को नहीं देखा, क्योंकि मेरे अपने प्रयत्नों के कारण, जिनके द्वारा मैं सभ्यता की बुराइयों को दूर करना चाहता था,उसी शरद ऋतु के अन्त में मुझे उत्तरी लेबनान से देख निकाला दे दिया गया और मुझे एक ऐसे दूर देश में प्रवासी का जीवन बिताना पड़ा है, जहां के तूफान बहुत कमजोर हैं और उस देश में एक आश्रमवासी का-सा जीवन बिताना एक अच्छा-खासा पागलपन हैं, क्योंकि यहां का समाज भी बीमार है।

 

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