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कोलूशा मैक्सिम गोर्की

कोलूशा मैक्सिम गोर्की

भावानुवाद - आदर्श कुमारी जैन

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कब्रिस्तान के मुफलिसों के घेरे में पत्तियों से ढकी और बारिश तथा हवा में ढेर बनी समाधियों के बीच एक सूती पोशाक पहने और सिर पर काला दुशाला डाले,दो सूखे भूर्ज वृक्षों की छाया में एक  स्त्री बैठी है। उसके सिर के सफेद बालों की एक लट उसके कुम्हलाये गाल पर पड़ी है। उसके मजबूती से बंद होठों के सिरे कुछ फूले हुए-से हैं, जिससे मुहं के दोनों ओर शोक-सहूचक रेखाएं उभर आई है। आंखों की उसकी पलके सूजी हुई हैं, जैसे वह खूब रोई हो और कई लम्बी रातें उसकी जागते बीती हों।

 मैं उससे कुछ ही फासले पर खड़ा देख रहा था, पर वह गुमसुम बैठी रही और जब मैं उसके नजदीक पहुंच गया तब भी उसमें कोई हलचल पैदा नहीं  हुईं। महज अपनी बुझी हुई आंखों को उठाकर उसने मेरी ओर देखा और मेरे पास पहुंच जाने से जिस उत्सुकता, झिझक अथवा भावावेग की आशा की जाती थीं, उसे तनिक भी दिखाये बिना वह नीचे  की ओर ताकती रही।

 मैंने उसे नमस्कार किया। पूछा,"क्यों बहन, यह सामधि किसकी है?"

"मेरे लड़के की।" उसने बहत ही बेरुखी से जवाब दिया।

"क्या वह बहुत बड़ा था?"

"नहीं, बारह साल का था।"

"उसकी मौत कब हुई?"

"चार साल पहले।"

 स्त्री ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और अपने बालों की लट को दुशाले के नीचे कर लिया। उस दिन बड़ी गर्मी थी। मुर्दो की उस नगरी पर सूरज बड़ी बेरहमी से चमक रहा था। कब्रो पर जो थोड़ी बहुत  घास उग आई थी। वह मारे गर्मी और धूल के पीली पड़ गई थी और सलीबों के बीच यत्र-तत्र धूल से भरे पेड़ ऐसे चुपचाप खड़े थे, मानों मौत ने उन्हें भी अपने सांये  में ले लिया हो।

 लड़के की सामधि की ओर सिर से इशारा करते हुए मैने पूछा,"उसकी मौत कैसे हुई?"

 "घोड़ो की टापों से कुचलने से।" उसने गिने-चुने शब्दों में उत्तर दिया और समाधि को जैसे सहलाने के लिए झुर्रियों से भरा अपना हाथ उस ओर बढ़ा दिया।

 "ऐसा कैसे हुआ?"

 जानता था कि मैं अभद्रता दिखा रहा था, लेकिन उस स्त्री को इतना गुमसुम देखकर मेरा मन कुछ उत्तेजित और कुद खीज से भर उठा था। मेरे अन्दर सनक पैदा हुई कि उसकी आंखों में आंसू  देखूं। उसकी उदासीनता में अस्वाभाविकता थी पर मुझे लगा कि वह   उस ओर से बेसुध थी।

 मेरे सवाल पर उसने अपनी आंखें ऊपर उठाई और मेरी ओर देखा। फिर सिर से पैर तक मुझे पर निगाह डालकर उसने धीरे-से आह भरी और  बड़े मंद स्वर में अपनी कहानी कहनी शुरू की:

 "घटना इस तरह घटी। इसके पिता गबन के मामले में डेढ़ साल के लिए जेल चले गये थे। हमारे पास जो जमा पूंजी थीं वह इस बीच खर्च हो गई। बचत की कमाई ज्यादा तो थी नहीं। जिस समय तक मेरा आदमी जेल से छूटा हम लोग घास जलाकर खाना पकाते थे। एक माली गाड़ी भर वह बेकार घास मुझे दे गया  था।उसे मैंने सुखा लिया था और जलाते समय उसमें थोड़ा बुरादा मिला लेती थी। उसमें बड़ा ही बुरा धुआं निकलता  था और खाने के स्वाद को खराब कर देता था। कोलूशा स्कूल चला जाता था। वह बड़ा तेज लड़का था और बहुत ही किफायतशार था। स्कूल से घर लौटते समय रास्ते में जो भी लट्ठे- लकड़ी मिल जाते थे, ले आता था। वंसत के दिन थे। बर्फ पिघल रही थी। और कोलूशा के पास पहनने को सिर्फ किरमिच के जूते थे। जब वह उन्हें उतारता था तो  उसके पैर मारे सर्दी के लाल-सुर्ख हो जाते थे।

 "उन्हीं दिनों उन लोगों ने लड़के के पिता को जेल से रिहा कर दिया और गाड़ी में घर लाये। जेल में उसे  दिल का दौरा पड़ गया था। वह बिस्तर पर पड़ा मेरी ओर ताक रहा था। उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कराहट थी। मैंने उस पर निगाह डाली और मन-ही मन सोचा, ‘तुमने मेरी यह हालत कर दी है! और अब मैं तुम्हारा पेट कैसे भरूंगी? तुम्हें

कीचड़ में पटक दूं। हां,मैं  ऐसा ही करना चाहूंगी।

‘‘ लेकिन कोलूशा ने उसे देखा तो बिलख उठा। उसका चेहरा जर्द हो गया और बड़े बड़े आंसू उसके गालों पर बहने लगे। मॉँ, इनकी ऐसी हालत क्यों है?’ उसने पूछा। मैंने कहा, यह अपना जीना जी चुके हैं’

‘‘उस दिन के बाद से हमारी हालत बदतर होती गई। मैं रात दिन मेहनत करती, लेकिन अपना खून सुखा करके भी बीस कापेक से ज्यादा न जुट पाती और वह भी रोज नहीं, खुशकिस्मत दिनों में। यह हालत मौत से भी गई-बीती थी और मैं अक्सर अपनी जिन्दगी का खात्मा कर देना चाहती। 

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