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जलालुद्दीन रूमी की कहानी - लुकमान की परीक्षा गुलाम पिता

जलालुद्दीन रूमी की कहानी - लुकमान की परीक्षा गुलाम पिता

       हजरत लुकमान यद्यपि स्वयं गुलाम और गुलाम पिता के पुत्र थे, परन्तु उनका हृदय ईर्ष्या और लोभ से रहित था। उनका स्वामी भी प्रकट में तो मालिक था, परन्तु वास्तव में इनके गुणों के कारण दिल से इनका गुलाम हो गया था। वह इनको कभी का आजाद कर देता, पर लुकमान अपना भेद छिपाये रखना चाहते थे और इनका स्वामी इनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहता था। उसे तो हजरत लुकमान से इतना प्रेम और श्रद्धा हो गयी थी कि जब नौकर उसके लिए खाना लाते तो वह तुरन्तु लुकमान के पास आदमी भेजता, ताकि पहले वह खालें और उनका बचा हुआ वह खुद खाये। वह लुकमान का जूठा खकर खुश होता था और यहां तक नौबत पहुंच गयी थी कि जो खाना वह न खाते, उसे वह फेंक देता था और यदि खाता भी था तो बड़ी अरुचि के साथ।
एक बार किसी ने उनके मालिक के लिए खरबूज भेजे। मालिक ने गुलाम से कहा, ‘‘जल्दी जाओ और मेरे बेटे लुकमान को बुला लाओ।’’
लुकमान आये और सामने बैठ गये। मालिक ने छुरी उठायी और अपने हाथ से खरबूजा काटकर एक फांक लुकमान को दी। उन्होंने ऐसे शौक से खायी कि मालिक ने दूसरी फांक दी, यहां तक कि सत्रहवीं फांक तक वे बड़े शौक से खाते रहे। जब केवल एक टुकड़ा बाकी रह गया तो मालिक ने कहा, ‘‘इसको मैं खाऊंगा, जिससे मुझे भी यह मालूम हो कि खरबूजा कितना मीठा है।’’
जब मालिक ने खरबूजा खाया तो कड़वाहट से कष्ठ में चिरमिराहट लगने लगी और जीभ में छाले पड़ गये। घंटे-भर तक मुंह का स्वाद बिगड़ा रहा। तब उसने आश्चर्य के साथ हजरत लुकमान से पूछा, ‘‘ऐ दोसत, तूने इस जहर को किस तरह खाया और इस विष को अमृत क्यों समझ लिया? इसमें तो कोई संतोष की बात नहीं है। तूने खाने से बचने के लिए कोई बहाना क्यों नहीं किया?’’

हजरत लुकमान ने जवाब दिया, ‘‘मैंने आपके हाथ से इतने स्वादिष्ट भोजन खाये हैं कि लज्जा के कारण मेरा सिर नीचे झुका जाता है। इसीसे मेरे दिल ने यह गवारा नहीं किया कि कड़वी चीज आपके हाथ से न खाऊं। मैं केवल कड़वेपन पर शोर मचाने लगूं तो सौ रास्तों की खाक मेरे बदन पर पड़े। ऐ मेरे स्वामी, आपके सदैव शक्कर प्रदान करने वाले हाथ ने इस खरबूजे में कड़वाहट कहां छोड़ी थी कि मैं इसकी शिकायत करता!’’

रूमी की कहानियाँ

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