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धरती की ममता स्टीफन ज्विग

धरती की ममता स्टीफन ज्विग

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 अब आगे की कहानी फिर उलझ गई। वह साइबेरिया का किसान था। उसका घर बेकाल झील के पास था। वह जेनेवा झील के दूसरे किनारे की कल्पना कर सकता था। और  उसने सोचा, वह जरुर रुस होगा। उसने एक झोंपड़ी से दो शहतीर चुराये और उनके ऊपर झील पार की और वहां आया, जहां मछुवे ने उसे उत्सुकता से यह पुछते हुए अपनी कहानी समाप्त की, "क्या मैं कल घर पहुंच सकता हूं?"

इस सवाल के तर्जुमें से वे लोग बड़े जोर से हंस पड़े, जिन्होंने पहले सोचा कि वह निरा बुद्धू है, लेकिन बाद में सोचने पर वे हमदर्दी से भर उठे और सबने थोड़ा-थोड़ा पैसा उस डरपोक और रुआंसे भगोड़े के लिए इकट्ठा कर दिया।

 लेकिन अब पुलिस का एक ऊंचा अफसर जिसे फोन करके मोंत्रू से बुलाया गया था, वहां आया और बड़ी कठिनाई से उसने रिपोर्ट तैयार की। छानबीन के दौरान ने सिर्फ वह दुभाषिया प्राय:हैरान हो उठा, बल्कि उस साइबेरियावासी के शिष्टाचार के तौर तरीके न जानने से उसके दिमाग और पश्चिमी देशों के लोगों के बीच खाई पैदा हो गई। उसे अपने बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। सिवा इसके कि उसका नाम बोरिस था। वह अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ उस विशाल झील से कुछ ही फासले  पर रहता था। वे लोग प्रिंस मैचस्की के गुलाम थे। वह ‘गुलाम’ शब्द  का ही प्रयोग कर रहा था, हालांकि पचास वर्ष पहले रूस में गुलामी का खात्मा हो चुका था।

अब उसके भाग्य को लेकर बहस-मुबाहिसा होने लगा। बेचारा आदमी अपने कंधे झुकाये और बुझे चेहरे से उन बहस करने वालों के बीच खड़ा था। कुछ ने सोचा कि उसे बर्न के रुसी दूतावास में भेज देना चाहिए,लेकिन दूसरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसका नतीजा यह होगा कि उसको फिर फ्रांस भेज दिया जायगा। पुलिस के अफसर ने बताया कि यह फैसला करना कितना मुशिकल होगा कि आया उसको एक भगोड़ा माना जाय या बिना परिचय-पत्रों के एक परदेशी समझा जाय। जिले के राहत अधिकारी ने कहा कि उस यायावर का स्थानीय जमात के खर्च पर खाने और रहने का हक नहींहो सकता। एक फ्रांसीसी ने उत्तेजित होकर दखल देते हुए कहा कि उस बदकिस्मत भगोड़े का मामला बहुंत साफ है। काम पर लगाओं या सीमा के बाहर भेज दो। दो महिलाओं ने प्रतिवाद किया कि उस बेचारे का उसके दुर्भाग्य के लिए दोष नहीं दिया जा सकता। लोगों को उनके घरों से दूर करना और दूसरे देश में भेज देना अपराध है। जब एक बुजुर्ग डेनमार्क-निवासी ने अचानक  कहा कि आगामी पूरे सप्ताह के लिए वह उस अजनबी का खर्चा दे  देगा और इस बीच नगर निगम रुसी दूतावास से बात कर ले तो ऐसा दीख पड़ा मानो राजनैतिक झगड़ा उठ खड़ा होगा। इस अप्रत्याशित समाधान से सरकारी परेशानी दूर हो गई और  बहस करनेवालों के मतभेद भुला दिये गए।

जिस समय बहसें जोरों से चल रही थीं, उस भगोड़े की डरपोक आंखें होटल के मैनेजर के होठों पर जमी थीं। उस भीड़ में वहीं एक आदमी था, जो उसकी किस्मत का निबटारा कर सकता था। भगोड़े के वहां आने से जो जटिलाताएं पैदा हो गई थीं, उन्हें वह कम ही समझ पाता जान पड़ता था। जब कोलाहल थम गया तो उसने अपने जुड़े हुए हाथ मैनेजर के चेहरे की ओर याचना के रूप में उठाये जैसे कोई स्त्री किसी देवता की अभ्यर्थना कर रही हो। उसके इस संकते से सबके दिल भर आये। मैनेजर ने आत्मीयता से उसे भरोसा दिलाया कि वह अपने मन पर से  सब तरह के बोझ को उतार दे। उसे कुछ दिन यहां रहने दिया जायगा। उसको कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकेगा और उसकी जरुरतें उस गांव के होटल से पूरी कर दी जायेगी। रुसी ने मैनेजर का हाथ चूमना चाहा लेकिन मैनेजर ने आभार के इस अपरिचित रूप को स्वीकार नहीं किया। वह शरणार्थी को सराय में ले गया जहां उसके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था होनी थी। उसने एक बार फिर उसे आश्वस्त किया कि सबकुछ ठीक होगा और विदाई के रुप में आखिरी बार सिर झुकाकर  होटल को वापस चला गया।

 भगोड़ा मैनेजर को जाते हुए देखता रहा। उसका चेहरा एक बार फिर उस आदमी के चले जाने से दुखी हो उठा, जो उसकी बात समझ सकता था। उन लोगों की चिन्ता के किये बिना जो उसके विचित्र व्यवहार पर मनोरंजन कर रहे थे,। वह अपने मित्र की तबतक देखता रहा, जबतक कि वह कुछ ऊंची पहाड़ी पर बने होटल में उसकी आंखों से ओझल न हो गया।

 अब एक दर्शक ने उस रूसी के कंधे पर दया-भाव से हाथ रक्खा और सराय के दरवाजे की ओर इशारा किया। सिर झुकाये वह उसे अस्थायी आवास में घुसा। उसे एक कमरा दिखा दिया गया और मेज पर बिठा दिया गया। उसे एक गिलास ब्रांडी दी गई। यहां उसने बड़ी बेचैनी में सबेरे का बाकी समय गुजारा। गांव के बच्चे बराबर खिड़की से उसकी ओर झांक रहे थे। वे हंसते थे और कभी-कभी उसकों जोर से पुकारते  थे। लेकिन उसने परवा नहीं की। ग्राहक उत्सुकता से उसकी ओर देखते थे; लेकिन वह सारे समय शर्म और संकोच से मेज पर निगाह जगाये बैठा रहा। जब रात का खाना परोसा गया, तो कमरा हंसी-खुशी से बातें करते लोगों से भर गया। लेकिन वह रूसी उनकी बातचीत का एक शब्द भी नहीं समझ सका। इस अनुभूति से वह दुखी था। कि वह उन अजनबियों में एक अजनबी है। वह उन आदमियों के बीच गूंगे-बहरे की तरह था, जो मजे में अपनी बातें कर सकते थे। उसके हाथ इतने कांप रहे थे कि वह अपना शोरबा भी नहीं पी सकता था। एक आंसू उसके गाल पर होकर मेज पर गिर पड़ा। उसने कातर भाव से अपने चारों ओर देखा। मेहमानों ने उसकी वेदना को समझा। सारे समाज पर खामोशी छा गई। मारे शर्म के उसका सिर इतना झुक  गया कि काली लकड़ी की मेज से  सट गया।

 शाम तक वह कमरे में रहा। लोग आये और चले गये, लेकिन न उसे उनका पता, चला और न उन्हें इसका। वह स्टोव की छाया में बैठा रहा। उसके हाथ मेज पर टिके रहे। उसकी मौजूदगी को हर कोई भूल गया। अचानक वह उठा और बाहर चला गया तब भी किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया। मूक पशु की भांति वह भारी मन से पहाड़ी के होटल में गया और बड़ी विनम्रता से, टोपी हाथ में लिये, सदर दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया। 

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