भारत में लघु चित्रकारी की कला का प्रारंभ मुगलों द्वारा किया गया जो इस भव्य अलौकिक कला को पार्शिया से लेकर आए थे। छठी शताब्दी में मुगल शासक हुमायुं ने पार्शिया से कलाकारों को बुलवाया जिन्हें लघु चित्रकारी में विशेषज्ञता प्राप्त थी। उनके उत्तराधिकारी मुगल बादशाह अकबर ने इस भव्य कला को बढ़ावा देने के प्रयोजन से उनके लिए एक शिल्पशाला बनवाई। इन कलाकारों ने अपनी ओर से भारतीय कलाकारों को इस कला का प्रशिक्षण दिया जिन्होंने मुगलों के राजसी और रोमांचक जीवन-शैली से प्रभावित होकर एक नई विशेष तरह की शैली में चित्र तैयार किए। भारतीय कलाकारों द्वारा इस खास शैली में तैयार किए गए विशेष लघु चित्रों को राजपूत अथवा राजस्थानी लघु चित्र कहा जाता है। इस काल में चित्रकला के कई स्कूल शुरू किए गए, जैसे कि मेवाड़ (उदयपुर), बंदी, कोटा, मारवाड़ (जोधपुर), बीकानेर, जयपुर और किशनगढ़।
यह चित्रकारी बड़ी सावधानी से की जाती है और हर पहलू को बड़ी बारीकी से चित्रित किया जाता है। मोटी-मोटी रेखाओं से बनाए गए चित्रों को बड़े सुनियोजित ढंग से गहरे रंगों से सजाया जाता है। ये लघु चित्रकार अपने चित्रकारों के लिए कागज़, आइवरी पेन लो, लकड़ी की तख्तियों (पट्टियों) चमड़े, संगमरमर, कपड़े और दीवारों का प्रयोग करते हैं। अपनी यूरोपीय प्रतिपक्षी कलाकारों के विपरीत भारतीय कलाकार अपनी चित्रकारों में अनेक परिदृश्यों को शामिल किया है। इसके प्रयोग किए जाने वाले रंग खनिज़ों एवं सब्जियों, कीमती पत्थरों तथा विशुद्ध चांदी एवं सोने से बनाए जाते हैं। रंगों को तैयार करना और उनका मिश्रण करना एक बड़ी लंबी प्रक्रिया है। इसमें कई सप्ताह लग जाते हैं और कई बार तो सही परिणाम प्राप्त करने के लिए महीने भी लग जाते हैं। इसके लिए बहुत बढिया किस्म के ब्रुशों की जरूरत पड़ती है और बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए तो ब्रुश आज की तारीख में भी, गिलहरी के बालों से बनाए जाते हैं। परम्परागत रूप से ये चित्र कला का एक बहुत शानदार, व्यक्तिपरक और भव्य रूप हैं, जिनमें राजदरबार के दृश्य और राजाओं की शिकार की खोज के दृश्यों का चित्रण किया जाता है। इन चित्रों में फूलों और जानवरों की आकृतियों को भी बार-बार चित्रित किया जाता है।
राजस्थान का किशनगढ़ प्रान्त अपनी बनी ठनी चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। यह बिल्कुल भिन्ना शैली है जिसमें बहुत बड़ी-बड़ी आकृतियां को चित्रित किया जाता है जैसे कि गर्दन, बादाम के आकार की आंखें और लम्बीय-लम्बी अंगुलियां। चित्रकारी की इस शैली में बने चित्रों में अपने प्रिय देवता के रूप में अनिवार्य रूप से राधा और कृष्ण और उनके संगीतमय प्रेम को दर्शाया जाता है। अठारहवीं शताब्दी में राजा सावंत सिंह के शासनकाल के दौरान इस कला ने ऊंचाइयों को छुआ, जिन्हें बनी ठनी नाम की एक दासी से प्रेम हो गया था और इन्होंने अपने कलाकारों को आदेश दिया कि वे कृष्णइ और राधा के प्रतीक के रूप में उनका और उनकी प्रेमिका का चित्र बनाएं। बनी ठनी चित्रकारों के अन्यक विषय हैं: प्रतिकृतियां, राजदरबार के दृश्य, नृत्य, शिकार, संगीत, सभाएं, नौका विहार (प्रेमी-प्रेमिकाओं का नौका विहार), कृष्ण लीला, भागवत पुराण और अन्य कई त्योहार जैसे कि होली, दीवाली, दुर्गा पूजा, और दशहरा।
आज भी बहुत से कलाकार रेशम, हाथीदांत, सूती कपड़े और कागज पर लघु चित्रकारी करते आ रहे हैं। लेकिन समय के साथ-साथ प्राकृतिक रंगों की जगह अब पोस्टर रंगों का प्रयोग होने लगा है।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217