सुखिया सब संसार है, खावै और सौवे |
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रौवे ||12||
भावार्थ - सारा ही संसार सुखी दीख रहा है, अपने आपमें मस्त है वह,
खूब खाता है और खूब सोता है |
दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है |
[धन्य है ऐसा जागना, ओर ऐसा रोना !किस काम का,इसके आगे खूब खाना और खूब सोना!]
जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ |
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ||13||
भावार्थ - जीवात्मा कहती है -
जिस कारण मैं उसे इतने दिनों से ढूँढ़ रही थी,
वह सहज ही मिल गया, सामने ही तो था | पर उसके पैरों को कैसे पकड़ू ?
मैं तो मैली हूँ, और मेरा प्रियतम कितना उजला ! सो, संकोच हो रहा है |
जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं |
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं ||14||
भावार्थ - जबतक यह मानता था कि `मैं हूं', तबतक मेरे सामने हरि नहीं थे |
और अब हरि आ प्रगटे, तो मैं नहीं रहा |
अँधेरा और उजेला एकसाथ, एक ही समय, कैसे रह सकते हैं ?
फिर वह दीपक तो अन्तर में ही था |
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217